भारत सरकार देश के विकास के नाम पर बड़ी ढांचागत परियोजनाओ के निमार्ण पर पिछलें कुछ दशकों से लगातार बल दे रही है। इन परियोजनाओं को भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर से जोडकर देखा जा रहा हैं। इन बड़ी परियोजनाओं में मुख्य रूप से विद्युत परियोजनाऐं, बांध सड़कें शहरी परियोजनाए, औद्योगिक क्षेत्रों के गलियारें (Industrial Corridor), स्मार्ट सिटी और अन्य मेगा परियोजना शामिल हैं। इन परियोजनाओे को बनाने और उनका सही क्रियान्वयन करने हेतु एक बढी मात्रा मे ना केवल जल जगंल जमीन की आवशयकता होगी बल्कि ऊर्जा बिजली जो की इन परियोजनाओं का सही क्रियान्वयन हेतु मुख्य चीज है उसकी भी जरूरत होगी।
विश्व स्तर पर अपनाए जा रहे विकास के मॉडल ने शहरीकरण को तीव्र कर दिया है। जो मौजूदा विकास की आधारभूत समस्या है। तेजी से दुनियाभर में शहरों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। बड़ी आबादी गांव को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रही है। भुमंडलीकरण के दौर में शहर और गांव के बीच की खाई बहुत तेज गति से बढ़ी है। असमान विकास ने तमाम आर्थिक गतिविधियों को शहर केन्द्रीत कर दिया है परिणामस्वरूप गांव की कार्यशील युवा श्रमशक्ति शहरों की ओर पलायन कर रही है।
जनगणना 2011 के अनुसार भारत की वर्तमान जनसंख्या का लगभग 31 प्रतिशत शहरों में बसता है और इसका सकल घरेलू उत्पाद में 63 प्रतिशत का योगदान हैं। ऐसी उम्मीद है कि वर्ष 2030 तक शहरी क्षेत्रों में भारत की आबादी का 40 प्रतिशत रहेगा और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान 75 प्रतिशत का होगा। इसके लिए भौतिक, संस्थागत, सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे के व्यापक विकास की आवश्यकता है। लेकिन शहरों की बढ़ती जनसंख्या और घटती सुविधाओं के कारण समस्या दिन ब दिन जटिल होती जा रही हैं। सड़क, पानी, बिजली, सीवेज, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य की कमी या वितरण में गैरबराबरी ने एक असंतोष को जन्म दिया है, शहर नर्क कहलाने लगे हैं। देश में शहरों की 30 प्रतिशत आबादी को पानी, 65 प्रतिशत को पर्याप्त बिजली 71 प्रतिशत को सीवेज और 40 प्रतिशत को परिवहन की व्यवस्था उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी ही बड़ी आबादी के पास घर का मालिकाना हक भी नहीं है।
इन स्थितियों के मद्देनजर ही भारत में रहने वाली शहरी आबादी को रहन-सहन, परिवहन और अन्य अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस करने के इरादे से भारत सरकार ने तीन महत्वाकांक्षी योजनाओं- स्मार्ट सिटी, अटल मिशन फॉर रिजुवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन अमृत और सभी को आवास योजना की शुरुआत की है। इन परियोजनाओं में स्मार्ट सिटी, सबसे अधिक चर्चा में है जिसके तहत देश के 100 शहरों को स्मार्ट बनाया जाएगा। इस सूची में मप्र के सात शहरों- भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर, उज्जैन, सतना व सागर को शामिल किया गया है।
हालांकि स्मार्ट सिटी की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है लेकिन दावा किया जा रहा है कि स्मार्ट सिटी डिजिटल और सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित होगी, जहाँ पर जनता को हर सुविधाएं पलक झपकते ही मिल जाएगी। इन दावों की सच्चाई भविष्य के गर्भ में छुपी हुई है। अंततः इससे किसको फायदा होगा यह प्रश्न हम सभी के सामने मौजूद है। जबकि देश के प्रधानमंत्री सहित केन्द्रीय मंत्रियों और सरकार से जुड़े विशेषज्ञों द्वारा लगातार स्मार्ट सिटी को आर्थिक समृद्धि का केन्द् भारत का भविष्य और विकास की रफ्तार बताया जा रहा है। दिखाए जा रहे सपनों को क्या वास्तव में जमीन पर उतारा जाएगा इसके पहले भी शहरों के आधारभूत संरचनात्मक विकास के लिए जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन ¼ जेएनएनयूआरएम) और अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट स्कीम फॉर स्माल एंड मीडियम टाउनस ¼ यूआईडीएसएसएमटी) जैसी योजनाओं को भी लाया गया था।
दूसरी ओर, हम जानते है कि एक तरफ ऊर्जा के नाम पर प्राकृतिक संसाधनो पर निजी कम्पनियॉ का लगातार नियंत्रण बढ रहा है तो दुसरी तरफ जनता का पैसा जनता से विकास के नाम पर कम्पनियॉ लुटा रही है। चाहे फिर वो कम्पनियों द्धारा बैकों से लिया गया लोन हो या बिजली टैरिफ या बिजली बिल, परियोजना हेतु उपकरन खरीदने के बिल को बढाकर दिखाना या कोयल खदान या कोयला आयात का मामले हो। कम्पनियॉ चारो ओर आम जनता का पैसा लूट रही है।
बिजली परियोजनाओं का विस्तार न केवल पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावित करता है, बल्कि इन परियोजनाओं के लिए बैंकों से भारी ऋण लेने वाली कंपनियों आज आपने आप को घाटे से निकाले के लिये सरकार से गुहार लगा रही है। हालांकि सार्वजनिक धन की यह चोरी केवल बिजली क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। वर्तमान में, भारतीय बैंकों को तनावग्रस्त परिसंपत्तियों( सकल एनपीए $ पुनर्गठित अग्रिम की भारी मात्रा में वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है। 31 मार्च 2018 तक भारतीय बैंकों की सकल गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) या बुरे ऋण 10-25 लाख करोड़ रुपये थे। पिछली तिमाही में 1-39 लाख करोड़ रुपये यानी 16 प्रतिशत 8-88 लाख करोड़ रुपये 31 दिसंबर 2017 से बढ़ गया है। आरबीआई की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में शीर्ष बैंक ने कहा कि अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी का सकल एनपीए( जीएनपीए अनुपात चालू वित्त वर्ष में बढ़ने की संभावना है।
बिजली क्षेत्र में एनपीए की समस्या को 2017 में टाटा पावर के तटीय गुजरात पावर लिमिटेड 4000 मेगावॉट और अदानी के मुंद्रा थर्मल पावर प्रोजेक्ट 4660 मेगावॉट, के स्वामित्व वाली इन परियोजनाओ के माध्यम से बिजली की क्षेत्र में एनपीए की समस्या पर प्रकाश डाला गया था जो भारी नुकसान उठा रहे थे और राज्य सरकार से जमानत करने की मांगे कर रहे थे। सार्वजनिक धन के साथ निजी कंपनियों को बाहर निकालने वाली सरकार की प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। मार्च 2018 में] बिजली क्षेत्र में तनावग्रस्त ¼गैर- निष्पादित संपत्ति) पर ध्यान केंद्रित करने के लिए ऊर्जा पर संसदीय स्थायी समिति द्वारा एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। इस समिति ने 34 थर्मल पावर परियोजनाओं की पहचान की, यह ध्यान देने योग्य है कि इन 34 थर्मल पावर प्लांटों में से 32 बिजली संयंत्र निजी क्षेत्र से संबंधित थे जबकि केवल दो सार्वजनिक क्षेत्र से थे। समीति ने कहा की लगभग 1-74 लाख करोड़ रुपये एनपीए बनने के कगार पर है। इसके अलावा] समिति ने बताया कि थर्मल पावर सेक्टर में कुल प्रगति के तनावग्रस्त संपत्ति 17-67 प्रतिशत 98]799 करोड़ रुपये है।
मध्यप्रदेश भी इससे अछुता नही है। सन् 2000 में विधुत मंडल का घाटा 2100 करोड़ तथा 4892-6 करोड़ दीर्घकालीन कर्ज था जो 2014&15 में एकत्रित घाटा 30 हजार 282 करोड़ तथा सितम्बर 2015 तक कुल कर्ज 34 हजार 739 करोड़ हो गया है। परन्तु ऊर्जा सुधार के 18 साल बाद भी 65 लाख ग्रामीण उपभोक्ताओं में से 6 लाख परिवारो के पास बिजली नहीं है। 20 हजार छोटे गांव में तो अब तक खंभे खङे नहीं हुए हैं।
मध्यप्रदेश सरकार ने छः निजी बिजली कम्पनियों से 1575 मेगावाट का बिजली क्रय अनुबंध 25 वर्षों के लिए किया गया जो इस शर्त के अधीन है कि बिजली खरीदें या न खरीदें 2163 करोड़ रुपये देने ही होंगे। बिजली की मांग नहीं होने के कारण बगैर बिजली खरीदे विगत तीन साल में 2016 तक 5513-03 करोड़ रूपये निजी कम्पनियों को भुगतान किया गया। प्रदेश में सरप्लस बिजली होने के बावजूद पावर मेनेजमेन्ट कम्पनी ने 2013&14 में रबी सीजन में डिमांड बढने के दौरान गुजरात की सुजान टोरेंट पावर से 9-56 रूपये की दर से बिजली खरीदी थी। नियामक आयोग ने इस पर सख्त आपत्ति जताया है। वर्तमान बिजली की उपलब्धता 18364 मेगावाट है तथा साल भर की औसत मांग लगभग 8 से 9 हजार मेगावाट है। बिजली की अधिक उपलब्धता के कारण सरकारी ताप विद्युत संयंत्र को मेनटेनेंस के नाम पर बंद रखा जा रहा है।
इस स्थिति के नतीजे यह हैं कि बिजली कंपनियों द्वारा परियोजनाओं के खतरनाक विस्तार के कारण बैंकों की तनावग्रस्त संपत्तियां बढ़ रही हैं, जिन्हें अंततः सार्वजनिक धन के माध्यम से सरकार जमानत करवा रही है। एक ओर निजी कंपनियां सार्वजनिक धन लूट रही हैं और दूसरी तरफ वे इन परियोजनाओं के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों को अनदेखा कर रहे हैं। बिजली परियोजनाओ के नाम पर गॉवो से और र्स्माट सिटी के नाम पर शहरो दोनो ही जगहों से जो आम जनता को उजाडने का काम किया जा रहा है।
यह लेख दिव्य हिमाचल में प्रकाशित हुआ था।