बुन्देलखण्ड भारत या किसी राज्य का टुकड़ा नहीं है, यह संस्कृति है और यह सभ्यता भी है। ऐसा नहीं है कि कोई इस बात को जानता नहीं है। जानते तो हैं, पर मानने में अभी दिक्कत हो रही है। अब डर इस बात का है कि कहीं यह दिक्कत समाप्त न हो जाए क्योंकि जिस दिन दिक्कत खत्म हो जाएगी, उसी दिन बुन्देलखण्ड खत्म हो जाएगा। बुन्देलखण्डी अड़े हुए हैं कि हम इस सकारात्मक दिक्कत को अपनी रचनात्मकता और नवाचार से पालते-पोषते रहेंगे। एक बड़ा वर्ग इसके लिए हमेशा कार्य करता है। पर उस रचनात्मक वर्ग के साथ सालों से, जो व्यवहार होता आया है, कहीं उससे परेशान होकर वह घर में न बैठ जाए। वह वर्ग घर में तो नहीं बैठेगा लेकिन पलायन ज़रूर कर जाएगा, और करता ही है। उसके पास उपाय ही क्या है..? इसके अलावा। उपाय भले ही कुछ न हो लेकिन दुःख निश्चित तौर पर बहुत हैं। इन बहुत सारे दुःखों का अगर सारांश निकालने की कोशिश हो, तो सारांश निकलता है कि बुन्देलखण्ड खत्म हो रहा है। बुन्देलखण्ड खत्म होते देखकर खीज होती है। इसी खीज से पता चलता है कि बुन्देलखण्ड को खत्म किया जा रहा है। इसके अनेक कारण हैं, जिन्हें थोड़ा भी कुरेदा जाएगा, तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि वास्तव में बुन्देलखण्ड को खत्म करने की नापाक कोशिश नहीं, अपितु पुरज़ोर प्रयास किए जा रहे हैं। आप सोच रहे होंगे कि कोई गहरी साज़िश की जा रही है। जब आप यह सोचने के लिए ठहरेंगे, तभी दूसरे पल में ख्य़ाल आयेगा कि किसी को साजिश करने की क्या पड़ी है..? और किसी को क्या फायदा होगा, इस साजिश से..? लेकिन जब आप इस बात पर ज़ोर देने की कोशिश दो-चार बार करेंगे। उत्तर खुद-ब खुद मिल जाएंगे।
इस पूरी फसाद की जड़ है विकास। वही विकास जिससे बुन्देलखण्ड कई मील दूर है। बुन्देलखण्ड में ऐसा भी नहीं है कि विकास नहीं हुआ है। विकास तो हुआ है, पर दिखावे मात्र के लिए। पर्यावरण विदों की सभा-गोष्ठियाँ बहुत होती हैं, ऐसा अति बुद्धिजीवियों के मुंह से अक्सर सुना होगा। पर हकीकत यह भी है कि बुन्देलखण्ड में पर्यावरण विदों की सभा-गोष्ठियां भी अपेक्षाकृत कम ही होती हैं, या कहें नाममात्र के लिए होती हैं। इन गोष्ठियों में एक बात ज़्यादातर सुनाई देती है- अति विकास, विनाश का रूप ही होता है। यह वाक्य शब्द-सा भले ही न सुनाई दे लेकिन इसके तर्जनुमा बिना गोष्ठियाँ खत्म ही नहीं होती हैं। इस वाक्य को बार-बार दोहराने के बावजूद दुनिया सहित हमारे बुन्देलखण्ड को इसी विकास ने बर्बाद कर दिया है। पर सौ की सच्ची बात, यह भी है कि बुन्देलखण्ड का विकास हुआ ही नहीं है। तब बर्बाद कैसे किया..? इसका एक वैचारिक ठोस उत्तर है। वह यह है कि हमें विकास का लालच दिखाकर, हमें दीन भावना से देखा गया। रोज हमें यह बताया गया कि हम पिछड़े हैं। हम जो कुछ कर रहे हैं, वह जीवन है ही नहीं। सच्चा जीवन, तो आलसी जीवन है, जिसे चतुराई से हम भोले-भाले लोगों को सुविधाजनक जीवन बताकर विकास के विनाशकारी मॉडल में ढकेला गया, इन चतुर लोगों के द्वारा। यहां एक और प्रश्न खड़ा करना चाहिए कि बुन्देलखण्डी कगार पर खड़े ही क्यों थे जिन्हें ढकेला गया ..? जवाव आसान-सा है कि लंबे समय तक गुरबत और असुविधा को भगवान की देन मानना। आजादी से भी हमारे ख्य़ालों को आजादी नहीं मिली थी। हम जातिवाद जैसी हज़ारों अंतर्कमियों मे उलझे हुए थे। लगभग चार दशक से बुन्देलखण्डियों को यह भान हुआ कि सरकार नाम की भी कोई व्यवस्था होती है, जो हमें मूलभूत सुविधाओं को दिलाने में मदद करेगी। एक चरफ हम मूलभूत सुविधाओं की कबायत में उलझे हुए थे। तभी महानगरों ने अपने मायाजाल में फंसाया। हम बुन्देलखण्डियों ने महानगरों के निवासियों की बात ध्यान से सुनी क्योंकि सालों से हमें बताया गया था कि बड़ा आदमी झूठ नहीं बोलता। यह वही दौर था जब नाममात्र के लिए बुन्देलखण्ड से स्केल पलायन हुआ। दूसरी ओर जातिवाद और गरीबी से निजात पाने के लिए धीरे-धीरे पलायन शुरू हुआ। चतुराई से शुरुआती पलायन को पाला-पोषा गया। शुरुआती दौर के पलायनकर्ता जब बुन्देलखण्ड वापस आये, तो महानगरों की बुराई जाने बिना बड़े-बड़े कसीदे पढ़ने लगे। यह वही दौर था जब फिल्मों से लेकर साहित्य तक में गांव की अपेक्षा शहरों को महान और आकर्षित बताया जाने लगा था। गांव के निवासी को गंवार कहना इसी चमके दौर में प्रारंभ किया गया। इक्कीसवीं सदी के शुरु होते-होते शहरी लोगों ने ‘गंवार’ को गाली का रूप दे दिया। एक तरफ यह चल रहा था। दूसरी ओर बाजारीकरण और दिखावे का विकास मॉडल हमें अपनी तरफ खीच रहा था। इन्हीं साजिशों ने बड़े पैमाने में पलायन करावाना शुरू किया।
अब आलम यह हो गया कि बड़ी संख्या में बुन्देलखण्डी, बुन्देलखण्ड से बाहर जाने लगे हैं। उनकी मानसिकता इस कदर बना दी गई है कि वह हर हाल में बुन्देलखण्ड से बाहर निकलना चाहते हैं। बुन्देलखण्ड के साथ अशिक्षित, बेरोजगारी और असुविधा (आधुनिक दौर की झूठी सुविधाएं क्योंकि प्राकृतिक तौर पर तो रहने योग था, तभी लोग वसे) जैसी उपमाएं लगा ही दी गई थी, जो सच्चाई भी है। इन्हीं कारणों से बुन्देलखण्ड से पलायन बढ़ा, जो बुन्देलखण्ड को खत्म करने पर तुला है। बहुत नुकसान पहुंचा भी चुका है। बाजारीकरण और शहरीकरण रोज बुन्देलखण्डियत को मार रहे हैं। बुन्देलखण्डियत खत्म होने के साथ बुन्देलखण्ड की संस्कृति-सभ्यता मर रही है। यदि नहीं संभले तो भूमि के एक टुकड़े मात्र से बुन्देलखण्ड जाना जाएगा लेकिन याद रखिए बुन्देलखण्ड जमीन का टुकड़ा नहीं है, और न था। “यहां पर लोग नहीं, आदमी रहते हैं”। समय रहते नहीं संभले, तो यह अनियंत्रित पलायन बुन्देलखण्ड नामक भारत की एक विविधता को नष्ट कर देगा।
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