जलवायु परिवर्तन का संकट तो वैश्विक समस्या है। जिसके कई कारण हैं, जैसे कि जीवाश्म ईंधनों (कोयला,तेल और गैस) का जलना, वनों की कटाई और कृषि। वनों की कटाई विकास परियोजनाओं, कृषि विस्तार और पशुपालन वृद्धि के लिए चारा उपलब्ध कराना आदि प्रमुख कारण है। गाय और भेड़ बडी मात्रा में मीथेन का उत्पादन करती है जो कार्बन डाइऑक्साइड से 23 गुना ज्यादा गर्म करने वाली ग्रीन हाउस गैस है। खेती में नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के उपयोग से नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन होता है। थर्मल पावर प्लांट से बिजली उत्पादन में कोयले का इस्तेमाल तथा ट्रक,बस एवं कारों में इस्तेमाल होने वाला डीजल और पेट्रोल से बहुत ज्यादा कार्बन उत्सर्जन हो रहा है। जिससे धरती और वातावरण का तापमान बढ़ रहा है। 2015 में, पेरिस में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के दौरान, राष्ट्रों ने 2030 तक अपने ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती का वचन देकर वैश्विक तापमान को पूर्व – औधोगिक स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रतिबद्धता पर सहमति व्यक्त की है। इसे पेरिस समझौता के रूप में जाना जाता है।
भारत की लगभग 71.22 प्रतिशत बिजली कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों से उत्पन्न होती है। देश में 180 ताप विद्युत संयंत्रों की कुल उत्पादन क्षमता 212 गीगावाट (1 गीगावाट=1000 मेगावाट) है जिसे 2030 तक बढ़ाकर 260 गीगावाट किया जाना है। प्राप्त जानकारी अनुसार अप्रैल 2023 से 2024 तक बिजली उत्पादन के लिए 29,18,265 मिलियन टन कोयले का उपयोग किया गया है। इस दौरान 11,67,308 टन फ्लाई ऐश और बॉटम ऐश का उत्पादन हुआ।
मध्य प्रदेश में सरकारी और निजी क्षेत्र के 15 थर्मल पावर प्लांट है। जिसका बिजली उत्पादन क्षमता 22,730 मेगावाट है। इन सभी थर्मल पावर प्लांट से सालाना 2 करोड़ 85 लाख 17 हजार 588 मेट्रिक टन राखङ निकलता है। सारणी, अनूपपुर और नरसिंहपुर के थर्मल पावर प्लांट में फ्लाई ऐश का 80 से 95 प्रतिशत उपयोग हो रहा है। बाकी के प्लांटों में फ्लाई ऐश का ढेर लगा है। पर्यावरण,वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 31 दिसंबर 2021 की अधिसूचना के अनुसार कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों का उत्सर्जित राख का 100 प्रतिशत उपयोग करना आवश्यक है। बिजली के लिए कोयले को जलाने के बाद राख को इकट्ठा करके फ्लाई ऐश और बाॅटम ऐश में वर्गीकृत किया जाता है। फ्लाई ऐश एक महीन पावडर है जबकि बाॅटम ऐश में भारी कण होते हैं जो बाॅयलर के तल पर बैठ जाते हैं। फ्लाई ऐश हवा में लंबी दूरी तय करती है। इसमें आर्सेनिक,सीसा और पारा जैसी भारी धातुएं होती है जो सांस के माध्यम से शरीर में प्रवेश करती है। कोल ऐश इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार इससे त्वचा संक्रमण, फेफड़ों और प्रोस्टेट कैंसर और स्थायी मस्तिष्क क्षति हो सकती है। पर्यावरण,वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सार्वजनिक परामर्श के बाद सितंबर 2015 में भारतीय ताप विद्युत संयंत्रों के लिए उत्सर्जन मापदंडों को संशोधित किया था। सभी ताप विद्युत संयंत्रों से अपेक्षा की गई थी कि 2017 तक इनका अनुपालन करेंगे। परंतु पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 2017 की तय समय-सीमा को बढ़ाता रहा है। एक बार फिर 30 दिसंबर 2024 को मंत्रालय ने बिना कोई कारण बताए थर्मल पावर प्लांट्स के लिए सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) उत्सर्जन मापदंडों का पालन करने की समय-सीमा को तीन साल के लिए आगे बढ़ाते हुए पर्यावरण संरक्षण नियमों संशोधन करते हुए अधिसूचना जारी की है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखा सहनशील फसलें लगाना,जल के उपयोग को कम करना और उपयोग किए गए जल का पुनर्चक्रण करना, नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल करना, ज्यादा से ज्यादा पर्यावरण अनुकूल उत्पादों का इस्तेमाल करना और जीवन शैली में बदलाव लाना,मांस और डेयरी उत्पादों का सेवन कम करना,कम वाहन चलाना और कम उडान भरना,सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करने के लिए जागरूकता अभियान चलाना, आर्द्रभूमि (वेटलैंड) सबसे प्रभावी पारिस्थितिकी तंत्र है जो कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर तापमान कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए आद्रभूमि को संरक्षित करना एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम हो सकता है। वेटलैंड इंटरनेशनल’ के अनुसार भारत की करीब 30 प्रतिशत आर्द्रभूमि पिछले तीन दशकों में विलुप्त हो चुकी है।
अंत में यह बात समझने की जरूरत है कि बाजार में उपलब्ध अधिकतम सामान बनाने में बिजली का उपयोग किया जाता है और यह अधिकांश बिजली कोयले से बनती है। इसलिए जीवन शैली में बदलाव आवश्यक है।
राज कुमार सिन्हा | बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ