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लॉकडाउन का फायदा उठाकर सरकार विद्युत अधिनियम में विवादस्पद बदलाव लाने कर रही पुरजोर कोशिश

टैरिफ की दर बढ़ेगी, जिसे फिर जबरन उपभोगताओं से वसूला जायेगा

यह विधेयक में एक असफल सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पी.पी.पी.) मॉडल का प्रस्ताव

विवादस्पद विद्युत(संशोधन) विधेयक, 2020 की निंदा करते हुए संयुक्त बयान

कड़े संघर्ष के बाद मिले मजदूरों के अधिकारों को किया जा रहा कमजोर

पंचायत और नगरपालिका की भी इसमें हिस्सेदारी होनी चाहिये

अपने सारे जोखिम और नुकसान को वो जनता पर लाद देगा

बड़े बांधों ने नदियों को बर्बाद किया है, और यहाँ तक की उनको सुखा भी दिया

सरकार को इस विधेयक पर पुन:विचार करना चाहिये

सिवनी/भोपाल/नई दिल्ली। गोंडवाना समय।

जिस दौरान देश और पूरा विश्व कोविड-19 से लड़ने के लिये अनियोजित तरीके से लागू किये गये लॉकडाउन से जूझ रहा है। उसी दौरान प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और उनके कैबिनेट मंत्री कानून और नीतियों में गंभीर ढांचागत बदलावों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसका एक अपरिवर्तनीय प्रभाव मौलिक स्वतंत्रताओं, श्रम, अर्थव्यवस्था, लोगों के जीवन एवं आजीविका, पर्यावरण और उर्जा सुरक्षा पर पड़ेगा।

यह सरकार अध्यादेशों के जरिये नये श्रमिक संहिता (लेबर कोड) को भी लेकर आयी, जिससे कड़े संघर्ष के बाद हासिल किये गये मजदूरों के अधिकारों को कमजोर किया जा रहा है। इसके साथ ही सरकार द्वारा पर्यावरणीय नियामक प्रक्रियाओं में बड़े स्तर पर और प्रतिगामी बदलाव किये गये हैं।

अब सरकार विद्युत अधिनियम, 2003 को व्यापक ढंग से संशोधित करने के लिये उत्सुक है, जिससे निजी क्षेत्र को सिर्फ मुनाफे से मतलब रहेगा पर उसका कोई दायित्व नहीं होगा और अपने सारे जोखिम और नुकसान को वो जनता पर लाद देगा।

21 दिन दिये गये, खासकर जब लोगों के अभिव्यक्ति के साधन को निलंबित कर दिया गया

विद्युत (संशोधन) विधेयक, 2020 उन सुधारों को फिर से लाना चाहता है, जो सरकार 2014 और 2018 में विभिन्न हिस्सों से विरोध के चलते पारित कराने में असक्षम रही। इस नये विधेयक को 17 अप्रैल, 2020 को प्रस्तावित किया गया, जब पूरा देश लॉकडाउन में फंसा हुआ था।

इसके साथ ही, लोगों को इस पर टिपण्णी करने के लिये महज 21 दिन दिये गये, खासकर जब लोगों के अभिव्यक्ति के साधन को निलंबित कर दिया गया है। सिर्फ ट्रेड यूनियनों और जन आन्दोलनों द्वारा इस गैर-लोकतान्त्रिक तरीके से कानून बनाने की प्रक्रिया के खिलाफ किये गये व्यापक विरोध के चलते ही, विद्युत मंत्रालय को लोगों की टिपण्णी करने के अवधि को 5 जून, 2020 तक बढ़ाना पड़ा।

प्रमुख समीक्षाएँ हैं, जो 29 अप्रैल 2020 को आयोजित राष्ट्रीय विमर्श में उभर कर आई थी सामने

यह बिजली (संशोधन) विधेयक, 2020 की कुछ प्रमुख समीक्षाएँ हैं, जो 29 अप्रैल 2020 को आयोजित राष्ट्रीय विमर्श में उभर कर सामने आयी थी, जो लॉकडाउन की बाध्यता के चलते विडियो कॉन्फ्रेंसिंग द्वारा हुई थी।

इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता थे, आॅल इंडिया पॉवर इंजिनियर फेडरेशन (ए.आई.पी.ई.एॅफ.) से शैलेन्द्र दुबे और अशोक रावय मौसम से सौम्य दत्ताय एनवायरनमेंट सपोर्ट ग्रुप (ई.एस.जी.) से लियो सल्दानाह, नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडीज (एन.आई.ए.एस.) की एसोसिएट प्रोफेसर तेजल कानितकर, सिटिजन, सिविक एंड कंज्यूमर एक्शन ग्रुप (सी.ए.जी.) से विष्णु राव, सेंटर फॉर फाइनेंसियल एकाउंटेबिलिटी (सी.एॅफ.ए.) से राजेश कुमार और सी.एॅफ.ए.: ई.एस.जी. से भार्गवी राव।

इस विमर्श का आयोजन सी.ए.जी., सी.एॅफ.ए., ई.एस.जी., मौसम, महंगी बिजली अभियान और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम) ने मिलकर किया था। 

यह विधेयक काफी समस्या खड़ी कर सकता है, खासकर कानूनी विवादों में

इस विमर्श में ए.आई.पी.ई.एॅफ के लिये बोलते हुए शैलेन्द्र दुबे ने कहा की विद्युत उत्पदान क्षेत्र, खासकर विद्युत वितरण कंपनियां (डिस्कॉम), कई सालों से बढ़ते नॉन-परफोर्मिंग एसेट (एन.पी.ए.) का जोखिम का सामना कर रहे हैं, जिसे दूर करने के लिये सरकार ने कुछ भी नहीं किया है।
विद्युत अधिनियम, 2003 के अंतर्गत शुरू किये गये निजीकरण उपायों के अनुक्रम को इस संशोधन के जरिये और तीव्र करने की कोशिश है। इससे ना सिर्फ पिछड़ें समुदायों के लिये बिजली इस्तेमाल करना और मुश्किल हो जायेगा, बल्कि यह एक लग्जरी वस्तु में बदल जायेगा।
इसलिये, इस संशोधन को लाने का समय ना सिर्फ शंका पैदा करता है बल्कि यह भी प्रतीत होता है कि इस देश में लगे लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए सरकार विद्युत अधिनियम में विवादस्पद बदलाव लाने की पुरजोर कोशिश कर रही है। उन्होंने इस बात पर भी लोगों को ध्यान दिलाया की यह विधेयक आने वाले अधिनियम में नयी शब्दावली डालना चाहता है जो काफी समस्या खड़ी कर सकता है, खासकर कानूनी विवादों में।

तो आबादी के बड़े हिस्से के लिये शिकायत निवारण पहुँच से हो जायेगा बाहर 

ए.आई.पी.ई.एॅफ के अशोक राव ने बताया की कैसे इस संशोधन का मुख्य उद्देश्य विद्युत अधिनियम को इस क्षेत्र के निवेशकों की मांग के और ज्यादा अनुकूल बनाना है और इसलिये इसका झुकाव उपभोगताओं के पक्ष में नहीं है। अनुबंध प्रवर्तन प्राधिकरण लाने की कोशिश को संदेह की दृष्टि से देखना चाहिये क्योंकि धोखाधड़ी वाले अनुबंधों को कानूनी तौर पर लागू करने का यह एक जरिया बन सकता है।
अशोक राव ने गहरी चिंता जाहिर करते हुए ये भी व्यक्त किया की यह विधेयक विद्युत नियामक आयोगों को गैर-जरूरी बना सकता है, क्योंकि यह प्रस्ताव रखा गया है की ज्यादातर अधिकार विद्युत प्राधिकरण में निहित होंगे । अगर ऐसा संभव हो जाता है तो आबादी के बड़े हिस्से के लिये शिकायत निवारण पहुँच से बाहर हो जायेगा।

इस विधेयक के जरिये राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा नीति को बढ़ावा देना भी चिंताजनक

लियो सल्दानाह ने बताया की यह विधेयक इस देश के लोकतांत्रिक और संघीय स्वरुप की अवहेलना करने के साथ इसको खतरे में डालता है। मौजूदा विद्युत अधिनियम यह आदेश देता है कि केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य एक साथ काम करें, जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार उर्जा इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण की योजना बनाता है, जिसमें विद्युत एक घटक है। यहाँ तक की वर्तमान अधिनियम में एक अलग अध्याय है।
जिसके अनुसार पंचायत और नगरपालिका की भी इसमें हिस्सेदारी होनी चाहिये, जो संवैधानिक शासन के तीसरे श्रेणी में आते हैं। तो यह विधेयक उर्जा सुरक्षा के निर्माण में शासन के तीसरे श्रेणी को एक अहम भागीदार के रूप में स्वीकारता है।
पर यह विधेयक इस हिस्सेदारी को भंग करने की कोशिश में है जिससे केंद्र सरकार के पास और अधिकार एकत्र हो जाये। इस विधेयक के जरिये राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा नीति को बढ़ावा देना भी चिंताजनक है क्योंकि यह प्रत्यक्ष तौर पर पनबिजली को अक्षय उर्जा के रूप में प्रोत्साहन देता है, जबकि यह आम जानकारी है की बड़े बांधों ने नदियों को बर्बाद किया है, और यहाँ तक की उनको सुखा भी दिया है।
इसे ऐसे समय में बढ़ावा दिया जा रहा है जब यह संशोधन इस भय को दूर नहीं करती है की खेती और सामूहिक भू-सम्पदा को बड़े स्तर पर सौर उर्जा, वायु और अक्षय उर्जा के अन्य स्रोतों (जिसमें बायोमास भी शामिल है) को बढ़ावा देने के लिये एकाधिकृत किया जा रहा है। इसके साथ ही इसके दीर्घकालीन सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों पर भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

स्टेट यूटिलिटीज को अबुबंध की विफलता पर जुमार्ना भरना पड़ेगा और यह एक विवादस्पद मुद्दा 

विष्णु राव ने विद्युत अनुबंध प्राधिकरण (ई.सी.ए.) और केंद्रीयध्राज्य विद्युत नियामक आयोग (सी.ई.आर.सी.व एस.ई.आर.सी.) के परिचालन-सम्बन्धी पहलुओं का विश्लेषण किया। प्रस्तावित संशोधन, खासकर ई.सी.ए. के गठन के साथ ना सिर्फ केंद्र के अधिकारों को और एकत्र कर देगा, बल्कि एस.ई.आर.सी. को महज प्रशासन से जुड़े कामों का निरीक्षक बना देगा।
 तमिल नाडू के एस.ई.आर.सी. का उदहारण देते हुए उन्होंने बताया की आयोग का ज्यादातर काम अनुबंधों से जुड़ा हुआ था, जबकि उसका बाकि काम टैरिफ विवादों और अन्य उपभोगता शिकायतों से जुड़ा हुआ था। एस.ई.आर.सी. से जुड़ा हुआ एक और समस्या खड़ी करने वाला प्रावधान है की अगर कुछ खास पदों के लिये रिक्त-पद होते हैं तो उनको एक साथ मिला दिया जायेगा, जिसके चलते निकटवर्ती एस.ई.आर.सी. का विलय हो जायेगा और उनको गठित करने का मुख्य उदेश्य ही समाप्त हो जायेगा।
प्रस्तावित संशोधन नवीकरणीय क्रय दायित्व (आर.पी.ओ.) को बढ़ावा देता है जहाँ स्टेट यूटिलिटीज को अबुबंध की विफलता पर जुमार्ना भरना पड़ेगा और यह एक विवादस्पद मुद्दा है। उन्होंने यह तर्क रखा की क्रॉस-सब्सिडी हटाने से और लागत को प्रतिबिंबित करने वाला टैरिफ (कॉस्ट-रिफ्लेक्टिव टैरिफ) अपनाने से उपभोगताओं को काफी तकलीफ होगी।

विधेयक का पूरा ध्यान साफ तौर पर बिजली को एक सेवा के बजाय एक वस्तु बनाने पर है

सौम्य दत्ता ने कहा कि इस संशोधन विधेयक का पूरा ध्यान साफ तौर पर बिजली को एक सेवा के बजाय एक वस्तु बनाने पर है। पर कुछ सवालों पर भी विशेष रूप से ध्यान देना जरूरी है जैसे देश को उतनी बिजली पैदा करने की क्या जरुरत है, जितना इस विधेयक में प्रस्तावित है, समाज के कौन से वर्ग इससे प्रभावित होंगे अगर देश में इस तरह का उत्पादन होगा और इस तरह के उर्जा उत्पादन के स्रोतों का क्या स्वरुप होगा ? उन्होंने इस पर विशेष रूप से ध्यान दिलाया की ऐसा पहली बार हो रहा है की विद्युत विधेयक में पनबिजली को प्रस्तुत किया गया है।
पनबिजली परियोजनाओं को अक्षय उर्जा की श्रेणी में शामिल किये जाने का विरोध किया जाना चाहिये और विशाल पनबिजली प्लांटों को निश्चित तौर पर अक्षय उर्जा की श्रेणी से हटाया जाना चाहिये। उन्होंने यह भी जोड़ा की जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और निष्कर्षण उद्योग, जैसे कोयला खनन पर आधारित बिजली उत्पादन के चलते स्थानीय प्रदूषण के सन्दर्भ में उर्जा के स्रोतों के बड़े स्तर पर विद्युतीकरण पर भी सवाल उठाया जाने चाहिये।  

निजीकरण किसी तरह के भी लागत को ना ही खत्म कर पायेगा और ना ही कम कर पायेगा

तेजल कानितकर ने कहा की अगर देश पहले से ही अक्षय उर्जा में आवश्यकता से अधिक उत्पादन की स्थिति में है तो फिर और ज्यादा उर्जा के उत्पादन और वितरण पर ध्यान केन्द्रित करने की क्या जरुरत है। उन्होंने कहा की यह नया विधेयक क्रॉस-सब्सिडी को खत्म कर देता है और यह एक तरह से उन राज्यों पर भार डालेगा जिनके पास पर्याप्त राशि नहीं है।
बिजली की आपूर्ति के निजीकरण के इस प्रस्ताव के बारे में तेजल कानितकर ने दो बड़े कमियों को चिन्हित किया। पहला, सरकार की यह पहचानने में विफलता की निजीकरण किसी तरह के भी लागत को ना ही खत्म कर पायेगा और ना ही कम कर पायेगा, और दूसरा, विशेष विक्रिय अधिकार प्राप्त करने वाली इकाई (फ्रेंचाइजी) को चुनने की प्रक्रिया मनमाने ढंग से सिर्फ ज्यादा मुनाफा देने वाले क्षेत्रों पर ही केन्द्रित होगी, क्योंकि कोई भी निजी वितरक सब्सिडी और कम आय के चलते ग्रामीण क्षेत्रों को बिजली उपलब्ध कराने में रूचि नहीं रखेगा।

निजीकरण के लिये एक प्रियोक्ति है, जिससे निजी मुनाफों को बढ़ावा दिया जा सके

कुल मिलाकर, इस विचार विमर्श में इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया की यह विधेयक में एक असफल सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पी.पी.पी.) मॉडल का प्रस्ताव है, जिसे कभी विश्व बैंक ने बढ़ावा दिया था। पी.पी.पी. दरसल सार्वजनिक संसाधनों और सम्पतियों के निजीकरण के लिये एक प्रियोक्ति है, जिससे निजी मुनाफों को बढ़ावा दिया जा सके, खासकर उर्जा उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में।
इस विधेयक में एक बार फिर से बुरी तरीके से असफल हुए डिस्कॉम के निजीकरण को थोपा जा रहा है, जिसे वितरण क्षेत्र में फ्रैंचाइजी के प्रोत्साहन के जरिये किया जा रहा है। इसके साथ ही इस विधेयक में प्रस्ताव है की टैरिफ को प्रतिस्पर्धात्मक बोली के आधार के बजाय, लागत के आधार पर केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा तय किया जायेगा।
 यह ना सिर्फ राज्य विद्युत नियामक आयोग में निहित अधिकारों को छीन लेता है, पर निर्णय लेने की प्रक्रिया का केन्द्रीकरण भी करता है जिससे यह लगभग तय है की टैरिफ का दर बढ़ेगा, जिसे फिर जबरन उपभोगताओं से वसूला जायेगा। यह प्रस्तावित विधेयक राज्य सरकारों के स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकारों का अतिक्रमण भी करता है और भारत के संघीय शासन पर एक सीधा खतरा है।
सारी चीजों को ध्यान में रखते हुए इस जन-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी विधेयक को पूरे तौर पर रद्द किया जाना चाहिये। सारे वक्ताओं ने जोर डालते हुए सुझाव दिया की सरकार को इस विधेयक पर पुन:विचार करना चाहिये।

The article published in GodwanaSamay can be accessed here.

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