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संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा 10 दिसम्बर को मानवाधिकार की एक विश्वव्यापी घोषणा पत्र को अंगीकृत किया गया। मानवाधिकार घोषणा पत्र उन सभी बिंदुओं को समाहित किया गया जो गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक है।इस घोषणा पत्र में कुल 30 अनुच्छेद हैं। इसके अनुसार सभी मनुष्य स्वतंत्र रूप से जन्म लेते हैं तथा प्रतिष्ठा एवं अधिकारों की दृष्टि से समान हैं।प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता तथा सुरक्षा का अधिकार है। किसी भी व्यक्ति को दास अथवा गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकेगा।किसी भी व्यक्ति के साथ न तो अमानवीय व्यवहार किया जाएगा और न उसे क्रूरतम दंड दिया जायेगा।विधि के समक्ष सभी व्यक्ति समान होंगे।इस तरह के कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को शामिल किया गया है।भारत सरकार ने मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 का कानून बनाया और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा राज्य मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया।

परन्तु देश एवं प्रदेश में मानवाधिकारों की जमीनी स्थिति कुछ अलग ही हकीकत बयां  करती है।भारत सरकार के मुताबिक देश के जेलों में 4,34,302 विचाराधीन कैदी मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे थे, जो देश के जेलों की कुल आबादी का 77 प्रतिशत है।राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो     (एनसीआरबी) आंकड़ों से पता चलता है कि मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे 70 प्रतिशत व्यक्तियों को जमानत मिलने से पहले तीन महीने जेल में बिताना पड़ा। देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि यूपी के जेलों में करीब 1000 से ज्यादा विचाराधीन कैदी होंगे जो सजा की सीमा पार कर चुके हैं।उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 94131, बिहार में 57537, महाराष्ट्र में 32883 और चौथे नंबर पर मध्यप्रदेश में 26877 विचाराधीन कैदी बंद हैं।जेल सांख्यिकी 2018 में दिए गए आंकड़े अनुसार जाति के आधार पर विश्लेषण से पता चलता है कि देश में 1.56 लाख कैदी ओबीसी, जबकि 96420 दलित और 53916 आदिवासी हैं। मुस्लिम कैदियों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 27,459  मुस्लिम कैदी हैं, दूसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल 8401 और कर्नाटक में 2798 मुस्लिम कैदी हैं। उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था कि जेल अपवाद होना चाहिए और जमानत अधिकार।भारत में पिछले छ: वर्षों में पुलिस मुठभेड़ में हत्याओं के 813 मामले दर्ज किए गए हैं।छत्तीसगढ़ में न्यायेतर हत्या( एक्स्ट्रा जुडिशियल किलिंग) के सबसे अधिक 259 मामले दर्ज किए गए हैं। उसके बाद उत्तर प्रदेश में 110 और असम में 79 मामले दर्ज किए गए हैं।उत्तर प्रदेश में पुलिस मुठभेड़ ( एनकाउंटर) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में न्यायेतर हत्याओं पर अपने विचार व्यक्त किये हैं और कहा है कि जीवन का अधिकार संविधान के तहत मौलिक अधिकार है और न्यायेतर हत्याएं इस अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि हाल के वर्षों में भारत में पुलिस मुठभेड़ और न्यायेतर हत्याओं के कई मामले सामने आए हैं, जिसमें पुलिस द्वारा शक्ति के दुरुपयोग किए जाने को लेकर चिंता जताई जा रही है।  संविधान के अनुच्छेद- 21 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है। निर्दोषता या अपराध के बाबजूद यह पुलिस का कर्तव्य है कि वह संविधान को बनाए रखे और सभी के जीवन के अधिकार की रक्षा करे।ऐसी हत्याओं को अक्सर जनता द्वारा महिमामंडित किया जाता है, इसमें शामिल पुलिस अधिकारियों को नायकों के रूप में चित्रित किया जाता है जो समाज को भयमुक्त करने का कार्य कर रहे हैं। इस गैर कानूनी हिंसा का जश्न मना रही जनता यह भूल जाती है कि पुलिस के पास इस तरह का कोई अधिकार नहीं है, यह आरोपी के मानवाधिकारों का उल्लंघन है।अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि बुलडोजर की जा रही कार्यवाही असंवैधानिक है। अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति का घर केवल इसलिए नहीं गिराया जा सकता है कि उस पर कोई आरोप लगा है।अदालत ने कहा कि आरोपों पर फैसला न्यायपालिका का काम है कार्यपालिका का नहीं। संयुक्त राष्ट्र विधि प्रवर्तन अधिकारियों की आचार संहिता में आठ अनुच्छेद दिए गए हैं जो पुलिस और पुलिस संगठन को मानवाधिकार के संदर्भ में उनके कार्यो और भूमिका को समझाने में मदद करते हैं। इन अनुच्छेद- 5 में कहा गया है कि  “कोई विधि प्रवर्तन अधिकारी यातना या अन्य क्रुर व अमानवीय सजा को  निर्धारित

 नहीं करेगा। कोई विधि प्रवर्तन अधिकारी ऐसी यातनाएं और क्रुर मानवीय सजा को न्याय संगत ठहराने के लिए असाधारण स्थितियों  जैसे युद्व, युद्व की धमकी, राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति, आन्तरिक राजनैतिक अस्थिरता या आपात स्थिति का भी आहवान नहीं करेगा। जबकि भारत में पुलिस बल को मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्घंनकर्ता माना जाता है। पुलिस अधिकारियों पर बलात्कार के आरोप लगे हैं, जिसमें पुलिस हिरासत में पीङीताओं के साथ बलात्कर भी शामिल है।जबकि कानून सुर्यास्त और सूर्योदय के बीच महिलाओं की गिरफ्तारी पर रोक लगाता है। ऐसी रात्रिकालीन गिरफ्तारी केवल असाधारण मामलों में ही की जा सकती है, बशर्ते मजिस्ट्रेट से स्पष्ट अनुमति ली गई हो और गिरफ्तारी महिला पुलिस अधिकारी द्वारा की गई हो।                                

जेल सांख्यिकी 2018 के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुस्लिम और दलित कैदियों की संख्या सबसे ज्यादा है, जबकि मध्यप्रदेश में आदिवासी कैदियों का अनुपात सबसे अधिक है। मध्यप्रदेश के विभिन्न जेलों में 15,500 कैदी आदिवासी हैं।मध्यप्रदेश की जेलों में 43 हजार कैदी हैं जो क्षमता से 45 प्रतिशत अधिक है।मध्यप्रदेश के जेलों में एक तरफ क्षमता से अधिक कैदियों को रखा गया है, वहीं जेलों में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। 5500 कैदियों पर मात्र एक डाक्टर है। नियम के मुताबिक 300 कैदियों पर एक डाक्टर होना चाहिए। मध्यप्रदेश की 72 फिसदी जेलें डाक्टर विहीन है।दो साल पहले इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 से पता लगा है कि मध्यप्रदेश में कैदियों को ढंग से इलाज नहीं मिलता है।राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में मध्यप्रदेश जेल प्रशासन ने 130 मौतें जेल के भीतर होने की रिपोर्ट दर्ज की थी। इनमें से केवल 5 कैदियों की मौत उम्रदराज होने की वजह से हुई थी, जबकि 125 की मौत आकस्मिक थी। इनमें से आधे ही गंभीर बीमारियों से पीड़ित थे। सुत्रों के अनुसार मध्यप्रदेश मानवाधिकार आयोग हर साल करीब 11000 मामलों पर स्वत: संज्ञान लेता है।परन्तु 2023- 24 में आयोग के पास 4706 शिकायत लंबित है। 2022-23 में 3196 और 2021-22 में 2490 शिकायतें लंबित थी।मानवाधिकार आयोग द्वारा सरकार को भेजी गई 260 अनुशंसाए अभी भी लंबित है। मानवाधिकारों के हनन मामलों में दोषियों पर कठोर कार्यवाही कर इसे कम किया जा सकता है।मानवाधिकारों के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए सुशासन को बढ़ावा देना आवश्यक है। इतिहास का सबक यह है कि पारदर्शी, जिम्मेदार,जवाबदेह और सहभागी शासन मानव गरिमा के लिए स्थायी सम्मान और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक शर्त है। क्या सरकार अपनी जबाबदेही और पारदर्शिता को लेकर प्रभावी कदम उठाएगी ? 

राज कुमार सिन्हा  | बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ



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