By

केन्द्र सरकार ऐसे कानूनों में बदलाव ला रही है या लाने के लिए प्रयासरत है जो वन संरक्षण, वन्यजीव संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण, जैव-विविधता और खनन से जुड़े हैं। ऐसे कानूनों में लाए जा रहे बदलावों से आदिवासियों और वन निवासियों के जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पङ रहा है। संविधान में आदिवासियों और वन निवासियों के हकों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। वन अधिकार कानून 2006 और पेसा कानून 1996 में वनों की जो लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था निर्धारित की गई है उसे वर्तमान सरकार के द्वारा किए जा रहे कानूनी बदलावों से भारी खतरा है।इस कानूनी बदलावों के पीछे के आर्थिक एजेंडे को समझने की जरूरत है,जिसका मुख्य उद्देश्य व्यापार को आसान बनाना है।खान और खनिज (विनियमन और विकास) अधिनियम,1957,वन संरक्षण कानून 1980, पर्यावरण प्रभाव आकलन 2006 आदि कानूनों और नियमों में प्रस्तावित संशोधन और किए गए संशोधन इस बात का सबूत है कि राज्य पूंजीपति और बङे व्यवसायिक घरानों को सहुलियत पहुंचाने के लिए काम करती है। राज्य वन संसाधनों को व्यापारी वर्ग को सौंप देना चाहती है।करोना काल में मध्यप्रदेश सरकार के ‘प्रधान मुख्य वन संरक्षक’ कार्यालय ने 20 अक्तूबर 2020 को 37 लाख हेक्टेयर बिगङे-वनों को ‘पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप’ (पीपीपी) मोड पर निजी कम्पनियों को देने का आदेश जारी किया था, परन्तु विरोध के बाद इसे रोका गया। इसी ‘संरक्षित वन’ में से लोगों को ‘वनाधिकार कानून – 2006’ के अन्तर्गत ‘सामुदायिक वन निस्तार हक्क’ या ‘सामुदायिक वन संसाधनों’ पर समुदाय का अधिकार दिया गया है या दिया जाने वाला है। अगर ये 37 लाख हेक्टेयर वनभूमि उद्योगपतियों के पास होगी, तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा? ‘इंडिया स्पेंड’ की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार देश के 10 लाख आदिवासियों से जमीन छीनकर कारोबारियों को दे दी गई है। वर्तमान में फिर से मध्यप्रदेश सरकार ने वनीकरण के लिए बिगङे वन भूमि को ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम के अन्तर्गत वृक्षारोपण के लिए निजी निवेशकों को सोंपने का योजना बनाई है, जिसमें निवेशकों को 50 प्रतिशत लघु वनोपज बेचने का अधिकार भी शामिल होगा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार,सत्रह राज्यों ने अबतक ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम के अन्तर्गत वृक्षारोपण के लिए 57,700 हेक्टेयर से अधिक बंजर भूमि को अलग रखा है। मध्यप्रदेश जो देश में सबसे अधिक वन क्षेत्र वाला राज्य है। उसने 2 फरवरी तक इस कार्यक्रम के लिए 15,200 हेक्टेयर से अधिक बंजर भूमि की पहचान और उसका पंजीकरण किया है जो सभी राज्यों से अधिक है, ऐसा सरकार ने वर्तमान संसद सत्र में बताया है।

भारत में वनों के संरक्षण के लिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 बनाया गया था और सर्वोच्च न्यायालय ने “वन” की व्यापक परिभाषा,जिसे टी.एन. गोदावर्मन बनाम भारत संघ(1996) में उसके ऐतिहासिक फैसले में शामिल किया गया था। 2023 का वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 1 दिसंबर 2023 को लागू हुआ।यह 2023 का वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम पारिस्थितिकी नुकसान, विस्थापन और आदिवासी लोगों के लिए कमजोर कानूनी ढांचा और भूमि अधिकारों को ख़तरे में डालता है।यह वन संरक्षण संशोधन पेसा और वन अधिकार कानून और नियमगिरि फैसले के विरुद्ध जाता है।पेसा,वन अधिकार कानून और नियमगिरि फैसला किसी भी परियोजना के शुरू होने के पहले ग्राम सभा से स्वतंत्र, पूर्व और सूचित सहमति लेने का प्रावधान करता है। संशोधन दूसरे देश से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों के साथ 100 किलोमीटर के दायरे में राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा से संबंधित लिनियर प्रोजेक्ट के लिए वन भूमि के परिवर्तन की अनुमति देता है। जबकि यह क्षेत्र जैव-विविधता और पारिस्थितिकी रुप से संवेदनशील क्षेत्र है। जंगल सफारी,चिङियाघर और ईको-टूरिज्म को “गैर- वन उद्देश्यों” के लिए अनुमोदित गतिविधियों की सूची में जोङा गया है।इस संशोधन ने वन भूमि की दो श्रेणियों तक सीमित किया गया है पहला वे क्षेत्र जिन्हें भारतीय वन अधिनियम 1927 या किसी अन्य लागू कानून के तहत औपचारिक रूप से नामित किया गया है और दूसरा ऐसी भूमि जो पहली श्रेणी में नहीं आती है, लेकिन 25 अक्टूबर 1980 से सरकारी रिकॉर्ड्स में वन के रूप में सूचीबद्ध हैं। इसके अलावा 12 दिसंबर 1996 के पहले गैर वन भूमि के तौर पर घोषित की गई भूमि अधिनियम के दायरे में नहीं आएगी। संशोधन को लेकर सरकार का पक्ष है कि कार्बन निरपेक्षता जैसी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को हासिल करने, विभिन्न प्रकार भूमि के मामले में संशयों को दूर करने, कानून की व्यावहारिकता को लेकर स्पष्टता लाने, गैर वन भूमि में पौधारोपण को बढ़ावा देने, वनों की उत्पादकता बढ़ाने आदि के लिए कानून में संशोधन किया गया है। इस संशोधन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दिया गया। न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीढ ने 2023 वन संरक्षण कानून में संशोधनों के खिलाफ याचिकाओं की सुनवाई करते हुए केन्द्र और राज्यों को अगले आदेश तक ऐसा कोई भी कदम उठाने से रोक दिया, जिससे वन क्षेत्र में नुकसान हो। फरवरी 2024 में शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी की थी कि लगभग 1.99 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र को वन संरक्षण पर 2023 के संशोधित कानून के तहत “वन” से अलग रखा गया था।इसी तरह, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम,1972 को 2022 में संशोधित किया गया। संशोधित कानून के तहत वन्यजीव कानून में विभिन्न अपराधों की सजा बढ़ा दी गई है और वन्यजीव अधिकारियों द्वारा किसी अपराध के लिए दंड देने की शक्ति 25000 रुपए से बढ़ाकर 5 लाख रुपए कर दी है। एक तरफ वन निवासी इतनी बड़ी रकम में असक्षम होंगे और उन्हें जेल की सजा काटनी होगी दूसरी तरफ अमीर अपराधी उसी अपराध के केवल पैसे देकर छूट जाएंगे। भारतीय वन कानून 1927 में संशोधन प्रस्तावित है, जिसमें वनों का सैन्यीकरण करने के लिए अधिकारियों को हथियारबंद कर उन्हें आफ्सपा( उत्तर- पूर्व के राज्यों के अशांत क्षेत्रों में तैनात सैन्य बलों को दी गई विशेष शक्तियां ) जैसी शक्तियां देने का प्रावधान शामिल करने की मंशा है। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 2015 में भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 170 क,170ख,170ग एवं 170घ को बदलने के लिए आदिवासी मंत्रणा परिषद में प्रस्ताव लाया गया था। जिससे आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासी खरीद सकें। विरोध के बाद इसे रोक दिया गया था।हालांकि समय – समय पर तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार राज्य की नीति के अनुसरण में संशोधन भी होते रहे हैं।

राज कुमार सिन्हा ,,(9424385139) | बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ

A pop-up is always irritating. We know that.

However, continuing the work at CFA without your help, when the odds are against us, is tough.

If you can buy us a coffee (we appreciate a samosa with it!), that will help us continue the work.

Donate today. And encourage a friend to do the same. Thank you.