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मध्यप्रदेश सरकार द्वारा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को दिए गए हलफनामे में बताया है कि 5.46 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर लोगों ने कब्जा कर रखा है। एनजीटी ने वन भूमि पर अतिक्रमण का स्वत: संज्ञान लेते हुए सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों से ये जानकारी मांगी थी।वन विभाग के वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन 2020- 21 में बताया गया है कि 1980 से 1990 के बीच 1.19 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण पर अतिक्रमण है। इसके बाद 1991- 2000, 2001- 2010 और 2011- 2020 बीच अतिक्रमण नहीं हुआ है।सवाल उठता है कि 2020 से 2025 के बीच 3.97 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण हो गया है? वन विभाग के वार्षिक प्रतिवेदन 2020- 21 में यह भी बताया गया है कि 1980 से 2020 तक कुल 2.84 लाख हेक्टेयर वन भूमि व्यपवर्तित किया गया है। जिसमें 1.64 लाख हेक्टेयर वन भूमि सिंचाई, खनिज, रक्षा एवं विविध विकास परियोजनाओं के लिए व्यपवर्तित किया गया है। जिसमें सबसे अधिक सिंचाई परियोजनाओं के लिए 83842 हेक्टेयर वन भूमि व्यपवर्तित किया गया है। मध्यप्रदेश में 2014 से 2024 के बीच विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए सबसे ज्यादा वनों की कटाई हुई है। केन्द्रीय पर्यावरण,वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने संसद में एक सवाल के जबाब में बताया है कि इस अवधि के दौरान राज्य में विकास परियोजनाओं के लिए 38,852 हेक्टेयर वन भूमि व्यपवर्तित किया गया है। भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार प्रदेश में 85,72,400 हेक्टेयर वन भूमि का होना बताया गया है जो पिछली रिपोर्ट की तुलना में 61,240 हेक्टेयर वन भूमि की कमी को दर्शाता है।

पर्यावरण मंत्रालय ने 2004 में गोदावर्मन मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष स्वीकार किया था कि ” अधिकारों का अभिलेख मौजूद नहीं था, जिसके कारण देश में वनों की चकबंदी प्रक्रिया के दौरान आदिवासियों के अधिकारों का निपटान नहीं किया जा सका।” इसलिए ग्रामीण लोग, विशेष रूप से आदिवासी जो अनादि काल से जंगलों में निवास करते हैं। अपने पारम्परिक अधिकारों और आजिविका से वंचित हो गए और कानून की नजर में अतिक्रमणकारी बन गए। भारत सरकार ने माना कि आदिवासियों के साथ किया गया ऐतिहासिक अन्याय को सुधारा जाना चाहिए। इसलिए वन अधिकार कानून 2006 में अनुसूचित जाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की ओर इशारा किया गया है।जो वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के लिए अभिन्न अंग है।

मध्यप्रदेश में वन अधिकार कानून 2006 के अन्तर्गत जनवरी 2025 के अनुसार 5,85,326 व्यक्तिगत वन भूमि पर कब्जा होने का दावा लगाया है, जिसमें से 3,18,425 दांवों को निरस्त कर दिया गया है, जो देश में सबसे ज्यादा है।वन अधिकार कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा 13 फरवरी 2019 को दिये गए फैसले से पता चला कि मध्यप्रदेश में 3,54,787 व्यक्तिगत दावे खारिज किए गए हैं। राज्य स्तरीय वन अधिकार निगरानी समिति ने 27 फरवरी 2019 को अपनी 17 वीं बैठक में स्वीकार किया कि दावों को खारिज करते समय समय उचित प्रक्रिया नहीं अपनाया गया और दावों को समीक्षा करने का निर्णय लिया गया था। इसके बाद मध्‍य प्रदेश में आदिवा‍सियों के वन अधिकारों का हनन वन मित्र एप और पोर्टल के माध्‍यम से किया जा रहा हैं। राज्‍य सरकार ने वन मित्र पोर्टल आदिवासी समुदाय की सुविधा के लिए डिजाइन किया था। अब यही उनके लिए असुविधा का कारण बन रहा है। राज्‍य में पोर्टल को आधार बनाकर आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। प्रावधान है कि 13 दिसंबर 2005 के पूर्व वन भूमि पर कब्जा होना चाहिए। आदिवासियों को जाति प्रमाण पत्र और गैर आदिवासी समुदाय को तीन पीढ़ियों से गांव का निवासी होना आवश्यक है।

राज्य सरकार द्वारा गठित वन अधिकार कानून टास्क फोर्स समिति के सदस्यों द्वारा विगत 26 अप्रेल को डिंडोरी जिले के समनापुर विकास खंड के बैगा आदिवासी बाहुल्य वन ग्राम सिमरधा पहुंचा था। वहां लोगों ने बताया कि 72 व्यक्तिगत दावे लगाए गए थे, उसमें से मात्र 35 लोगों को अधिकार पत्र मिला है,वो भी आधा- अधुरा। ऐसे गांव जो 1932 से पहले ही जंगलों में बसे हुए थे और इन इन जंगलों को “आरक्षित वन” घोषित करते समय से ही इनके अंदर शामिल कर लिया गया।इन गांव में बसे जोतदार को जमीन का स्थायी पट्टा नहीं दिया गया। ऐसे सैंकड़ों वन ग्रामों की यही स्थिति है। अभ्यारण्य और टाइगर रिजर्व में बसे गांव के दावे स्वीकार ही नहीं किया जा रहा है, जबकि कानून कहता है कि रिजर्व फॉरेस्ट में भी कब्जा है तो अधिकार पत्र दिया जाएगा।अत: वन अधिकार अधिनियम के पूर्णतः क्रियान्वयन होने तथा सभी दावों और समीक्षाओं का निपटारा होने तक वन अतिक्रमण की सीमा का निर्धारण नहीं किया जा सकता।

राज कुमार सिन्हा | बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ

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