शुष्क भूमि पारिस्थितिकी तंत्र, जो दुनिया के एक तिहाई से अधिक भूमि क्षेत्र को कवर करता है, अत्यधिक दोहन और अनुचित भूमि उपयोग के लिए बेहद संवेदनशील है।मरुस्थलीकरण शुष्क, अर्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों में भूमि का क्षरण है, यह मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तनों के कारण होता है, और दुनिया के सबसे गरीब लोगों को प्रभावित करता है।
स्वस्थ भूमि संपन्न अर्थव्यवस्थाओं का आधार है, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का आधा से अधिक हिस्सा प्रकृति पर निर्भर है। फिर भी हम इस प्राकृतिक पूंजी को खतरनाक दर से नष्ट कर रहे हैं।इससे जैव विविधता का नुकसान होता है, सूखे का खतरा बढ़ता है और समुदाय विस्थापित होते हैं। भूमि हमारी खाद्य प्रणालियों का आधार है, दुनिया का 95% भोजन कृषि भूमि पर उत्पादित होता है। हालांकि, इनमें से एक तिहाई भूमि वर्तमान में क्षरित हो चुकी है। यह क्षरित दुनिया भर में 3.2 बिलियन लोगों को प्रभावित करती है, विशेष रूप से ग्रामीण समुदायों और छोटे किसानों को जो अपनी आजीविका के लिए भूमि पर निर्भर हैं, जिससे भूख, गरीबी, बेरोजगारी और जबरन पलायन में वृद्धि होती है। भूमि, मृदा और जल संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन खाद्य उत्पादन बढ़ाने, पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने, भूमि, मृदा और जल की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा चरम मौसम की घटनाओं के प्रति ग्रामीण समुदायों को जागरूक और प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने की जरूरत है। वर्ष 1992 के रियो पृथ्वी सम्मलेन के दौरान जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता के नुकसान के साथ मरुस्थलीकरण को सतत् विकास के लिये सबसे बड़ी चुनौतियों के रूप में पहचाना गया था। मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखा हमारे समय की सबसे गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों में से एक है।विश्व भर में 20 से 40% भूमि क्षेत्र पहले से ही क्षरित माना जाता है।
संयुक्त राष्ट्र के पारिस्थितिकी तंत्र बहाली दशक 2021-2030 के आधे पड़ाव पर पहुंचने के साथ ही , हमें भूमि क्षरण की लहर को बड़े पैमाने पर बहाली में बदलने के प्रयासों में तेजी लाना होगा। 20 वीं सदी के बाद से, खनन, वनों की कटाई, अत्यधिक चराई, एकल कृषि, अत्यधिक जुताई और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग जैसे मानव निर्मित कारकों के कारण मिट्टी का क्षरण तेजी से बढ़ा है। कोलंबिया गणराज्य इस वर्ष 17 जून को मरुस्थलीकरण और सूखा दिवस के वैश्विक आयोजन की मेजबानी करेगा, जो प्रकृति-आधारित समाधानों के माध्यम से भूमि क्षरण की समस्याओं को संबोधित करने की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है।
बारिश और मिट्टी क्षरण के बीच सीधा संबंध है। यदि बारिश सामान्य से 1% अधिक रहती है तो मिट्टी क्षरण में 2% की बढ़ोतरी होती है। वैज्ञानिकों ने 2050 तक बारिश में सामान्य से 10% बढ़ोतरी की आशंका जताई है ऐसे में मिट्टी क्षरण और बढ़ सकता है।भारतीय मिट्टी सबसे कमजोर मिट्टी में से एक है। भारत में औसत मृदा क्षरण प्रति वर्ष 20 टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि वैश्विक औसत 2.4 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है।
भारत में मरुस्थलीकरण एक बड़ी समस्या है, जिससे देश की लगभग 29.32% भूमि क्षरण के दौर से गुजर रही है। राजस्थान , महाराष्ट्र और गुजरात में देश की करीब 50 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण से गुजर रही है। झारखंड में सर्वाधिक 68.77 प्रतिशत भूमि क्षरित हो चुकी है।62 प्रतिशत क्षरित भूमि के साथ राजस्थान दूसरे स्थान पर है।
2003-05 में 94.53 मिलियन हेक्टेयर भूमि का क्षरण हुआ था जो 2018-19 में यह 97.85 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। अर्थात लगभग 30 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि पिछले 15 वर्षों में खराब हुई है।यह समस्या मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन, मानवीय गतिविधियों और प्राकृतिक आपदाओं के कारण होती है।इस समस्या के कारण भारत में बंजर भूमि का विस्तार हो रहा है, जिससे कृषि उत्पादकता कम हो रही है और गरीबी बढ़ रही है। 2025 के नेचर पत्रिका में प्रकाशित वैज्ञानिक रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक भूमि क्षरण पर संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे को हासिल करने के लिए भारत को 77 ज़िलों में गली इरोजन ( भारी बारिश के दौरान मिट्टी के कणों का एक संकरी नाली में बह जाने की प्रक्रिया है) को रोकने पर काम करना होगा।2025 की इस रिपोर्ट के मुताबिक “भारत के भूमि क्षरण उन्मूलन मिशन में गली इरोजन एक गंभीर बाधा है।”पश्चिम भारत में बंजर जमीनों की अधिकता है तो पूर्वी भारत में गली इरोजन भारत की भूमि क्षरण ज्यादा गंभीर बाधा पेश करता है। रिपोर्ट के अनुसार नाले का सबसे अधिक कटाव झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य में होता है। इसके बाद मध्यप्रदेश और राजस्थान का नंबर आता है। मरूस्थलीकरण से निपटने के लिए टिकाऊ भूमि प्रबंधन और चरागाहों के संरक्षण को बढ़ावा देने के प्रयासों पर आधारित होगा। जिनमें वनस्पति आवरण की स्थापना करना और जंगल कटाई को रोकना, मिट्टी और जल संरक्षण उपायों (जैसे चेक डैम ) को अमल में लाना, गली इरोजन की भराई, अपवाह को कमजोर करना और उनका रुख मोङना शामिल है।
दूसरा मिट्टी संरक्षण के लिए कम गहरी जुताई, मेड़बंदी, पट्टियों और सीढ़ीदार खेतों का उपयोग, कटाव को कम कर सकते हैं और पानी के बहाव को धीमा कर सकते हैं।बंजर भूमि की अधिकता वाले इलाकों में खराब भूमि में सुधार और उन्हें दोबारा उपजाऊ बनाने के लिए उपयुक्त नीतियां बनाना बहुत जरूरी है। भारत को भूमि प्रबंधन की एक ऐसी नीति की आवश्यकता है जो बैड लैंड और कटाव बने नालों और जो समाज के साथ – साथ पर्यावरण पर उनके प्रभावों में स्पष्ट अंतर करती हो।भारत विश्व की 18% मानव आबादी और विश्व की 15% पशुधन आबादी का भरण-पोषण करता है, लेकिन उसके पास विश्व का केवल 2.4% भूमि क्षेत्र है। इसलिए देश को युद्ध स्तर पर बंजर होती जमीन को बचाना होगा।
राज कुमार सिन्हा (9424385139) | बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ, जबलपुर
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