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इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस का विषय है “प्रकृति के साथ सामंजस्य और सतत विकास”।प्राचीन समय से ही भारत के ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। अपना ही भारी नुकसान कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके।भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मांं स्वरूप माना गया है।

जैव विविधता पृथ्वी पर सभी जीवन का आधार है और सभी लोगों के आर्थिक समृद्धि के लिए मौलिक है। पृथ्वी पर सबसे अधिक जैव विविधता वाले स्थानों में से कुछ पारिस्थितिकी तंत्रों की एक श्रृंखला है, जिनमें से प्रत्येक में समृद्ध वनस्पति और जीव हैं।इन जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट में, अनगिनत प्रजातियां जटिल पारिस्थितिक तंत्र में सह-अस्तित्व में रहती हैं, जिनमें से प्रत्येक अपने संबंधित पारिस्थितिकी तंत्र के नाजुक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 1992 में रियो डी जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता की मानक परिभाषा अपनाई गयी। इस परिभाषा के अनुसार, “जैव विविधता के समस्त स्रोतों यथा- अंतर क्षेत्रीय, स्थलीय, सागरीय एवं अन्य जलीय नक्षत्रों के अनुसार जीवों के मध्य अंतर एवं साथ ही उन सभी स्रोत समूह, जहां ये भाग हैं, में पाई जाने वाली विभिन्नताएं हैं।भारत भी दुनिया के सबसे जैव विविधता वाले देशों में से एक है, जहां घने वर्षा वनों से लेकर तटीय आर्द्र भूमि तक समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र हैं।

भारत दुनिया के शीर्ष 10 जैव विविधता वाले देशों की सूची में शामिल है।जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, अति-दोहन और भूमि उपयोग परिवर्तन जैसी व्यापक समस्याएं जैव विविधता में गिरावट का कारण बन रही है।सुंदरबन जैसे मैंग्रोव वन समुद्र-स्तर में वृद्धि, कीचड़ (mud) की कमी और सिकुड़ते पर्यावासों जैसे ‘तिहरे खतरे’ का सामना कर रहे हैं। जंगलों में आग के कारण जंगल और जैवविविधता प्रभावित हो रही है।

केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने विगत 16 मई को काठमांडू में जलवायु परिवर्तन और पर्वतीय क्षेत्रों पर इसके प्रभाव पर एक वैश्विक संवाद “सागरमाथा संवाद” को संबोधित करते हुए हिमालय की बढ़ती पारिस्थितिकी अति संवेदनशीलता की ओर दिलाया, जो तेजी से ग्लेशियर पिघलने की ओर इशारा है। जलवायु संकट बढ़ाने में बहुत कम योगदान देने के बाबजूद हिमालयी समुदाय खतरे में है। हिमालय क्षेत्र में तापमान वृद्धि के कारण प्रजातियां अधिक ऊंचाई की ओर जा रही हैं, जिससे उच्च-तुंगता पर वास करने वाले हिम तेंदुए जैसे जीवों के लिये खतरा उत्पन्न हो रहा है।हिमालय पर्वतों से भी पूरानी पश्चिम घाट जो कि गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु से गुजरता है, जिसके संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा 2011 में गाडगिल और 2013 में कस्तूरी रंगन समिति का गठन किया था। विशेषज्ञों ने सरकार को सुझाव दिया कि पश्चिम घाटों पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों के रूप में घोषित किया जाए। केवल सीमित क्षेत्रों में सीमित विकास की अनुमति हो।परन्तु इस क्षेत्र में अनियंत्रित उत्खनन, पहाङीयों और पेङो की कटाई, अत्यधिक बुनियादी ढांचे का विकास आदि बङे पैमाने पर हो रहा है। कई पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण से जुड़े नियम नहीं हो हैं परन्तु प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जाता है।सितंबर 2020 में जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति मंच (आईपीबीईएस) द्वारा प्रकाशित दस्तावेज़ न केवल प्रकृति के खतरनाक क्षरण की चेतावनी देता है, बल्कि इसे एक ऐसे कारक के रूप में इंगित करता है जो भविष्य में महामारियों के जोखिम को बढ़ाता है।

भारत में 45,000 से अधिक पौधों की प्रजातियां और 90,000 से अधिक पशुओं की प्रजातियां हैं, जिनमें बंगाल टाइगर और भारतीय हाथी जैसे प्रतिष्ठित जीव भी शामिल हैं।जंगल और घास के मैदान प्राकृतिक फिल्टर के रूप में कार्य करते हैं, जो हमारी हवा और पानी को शुद्ध करते हैं। विविध पारिस्थितिकी तंत्र मिट्टी की उर्वरता में योगदान करते हैं और मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। मधुमक्खियों और तितलियों जैसे कीट परागणकर्ता हमारी फसलों की सफलता सुनिश्चित करते हैं, जबकि अनगिनत अन्य प्रजातियां खाद्य श्रृंखला की नींव बनाती हैं, जो पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखती है।जैव विविधता के नुकसान के लिए जिम्मेदार प्रमुख कारकों में जैसे प्रदूषण, आवास की हानि, शिकार, आक्रामक प्रजातियों की बढ़ोतरी, पसंदीदा प्रजातियों का अत्यधिक दोहन, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदा है।मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित जलीय जीव है तथा जलचर पर्यावरण को संतुलित रखने में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।जिस पानी में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है। वैज्ञानिकों द्वारा मछली को जीवन सूचक (बायोइंडीकेटर) माना गया है।अमरकंटक से निकलकर खंभात की खाङी में गिरने वाली नर्मदा नदी पर गत दशकों में अलग- अलग बांध बनने के बाद इसके पानी का प्राकृतिक बहाव में रुकावट आई है, जिससे मध्यप्रदेश की राजकीय मछली महाशीर के अस्तित्व पर संकट आ गया है।

भारत में जैव विविधता के नुकसान से निपटने के लिए स्पष्ट बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। जैव विविधता संरक्षण प्रयासों में मूल कारणों का समाधान होना चाहिए और यह स्थानीय समुदायों को शामिल करके ही किया जाना चाहिए।

जैव विविधता संरक्षण के लिए केन्द्र सरकार द्वारा “जैवविविधता संरक्षण कानून 2002″ और इसके क्रियान्वयन के लिए मध्यप्रदेश में”जैवविविधता नियम 2004” बनाया गया है। मध्यप्रदेश सरकार ने 2005 में जैवविविधता बोर्ड का गठन भी किया है।मुख्य सचिव की अध्यक्षता में राज्य जैव विविधता बोर्ड की 17 वीं बैठक में निर्णय किया गया कि प्रदेश की जैव विविधता का दस्तावेजीकरण करने के लिए लोक जैव विविधता पंजी का निर्माण और इसे डायनेमिक डिजिटल लोक जैव विविधता पंजी के रूप में बनाने का भी निर्णय लिया गया।गिद्धों की घटती संख्या एक चिंता का विषय है। इसके संरक्षण की पहल किया गया है। एक समय भारत में गिद्धों की संख्या चार करोड़ से अधिक थी, लेकिन 2000 तक इनकी संख्या में लगभग 99% की गिरावट दर्ज की गई। इसके पीछे डाइक्लोफेनेक नामक पशु चिकित्सा दवा को प्रमुख कारण माना गया, जिस पर अब केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगाया है। इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं – 2021 में मध्यप्रदेश में 9,446 गिद्ध, 2024 में 10,845 गिद्ध, और 2025 की पहली गणना में यह संख्या 12,000 से अधिक पहुंच चुकी है। ऐसे कई विलुप्त होते वनस्पति और जीव – जंतुओं को संरक्षित करना आवश्यक है।

पृथ्वी की अधिकांश जैव विविधता का प्रबंधन स्वदेशी लोगों और स्थानीय समुदायों द्वारा किया जाता है, यही कारण है कि यह सुनिश्चित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उन्हें प्रकृति की रक्षा और पुनर्स्थापना के लिए आवश्यक समर्थन मिले।

राज कुमार सिन्हा | बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ

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