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समाज के गठन में अगर उत्पादन की पद्वति एक बुनियादी आधार है तो यह माना जा सकता है कि खेती ने मानव सभ्यता के विकास में मनुष्य को उसे स्थिरता दी और धीरे- धीरे आपसी सहमति के आधार पर खेती के इर्दगिर्द एक सामाजिक- सांस्कृतिक संरचना का निर्माण हुआ। इस तरह जीवन जीने के लिए स्थायी साधन के रूप में खेती और उससे जुङी समाजिक व्यवस्था एक गांव के रूप में विकसित हुआ। बाद में शहर और नगर केन्द्रीय व्यवस्था विकसित हुआ परन्तु गांव उत्पादन का आधार बने रहे। उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण ने उत्पादन संबधों तथा समाजिक संबधों को प्रभावित किया और गांव की समाजिक – सांस्कृतिक संरचना में तमाम विकृतियां पैदा हुई। जाति वर्ण व्यवस्था ने साधनों के नियंत्रण को वैधता दी। दूसरी ओर नगरों और शहरों को को स्वत: आधुनिक राज्य के लिए केन्द्र में ला दिया और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को बनाए रखने की भूमिका भी प्राप्त कर लिया।गांव अपने पूरे अर्थों में अप्रासंगिक होते गए। यह आम धारणा बन गयी की गांव पिछङे हैं। इनमें आधुनिक समाज के हिसाब से कुछ भी नहीं है जिसे राज – काज की व्यवस्था में शामिल किया जाए। यह आम धारणा गांवों को शासित होने के लिए पर्याप्त योग्यता में बदल गया। आज गांवों के विकास की चिंता करना या गांवों को मौलिक सुविधाएं देने जैसी जितने भी प्रयास देश में हुए हैं और होते रहते हैं उनमें एक बात उल्लेखनीय रूप से  प्रकट होती है कि गांव अपने बारे में खुद नहीं सोच सकते हैं और गांवों के लिये किसी को सोचना है और यह काम राज्य सरकारों से लेकर केन्द्र सरकार ने अपने जिम्मे लिया हुआ है। वास्तव में यही द्वंद्व गांवों की स्वायत्तता और उनकी आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय, राजनैतिक पहलुओं को पूरी तरह से नकार करके केवल प्रशासनिक इकाइयों में तब्दील करके देखता है। 

15 अगस्त 1947 को देश की पहली स्वतंत्रता दिवस पर गांधीजी ने कहा था ‘मेरे सपनों का भारत सात लाख गांव गणराज्यों का संघ’ होगा। भारत के संविधान के अनुच्छेद 40 के तहत से यह उम्मीद की गई थी कि ‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्तता की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों। ‘इस संवैधानिक निर्देश के पालन में केन्द्र और राज्य सरकार विफल रही। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1952 में आदिवासी वयवस्था के लिए पंचशील निर्धारित किये। इनमें बिना बाहरी हस्तक्षेप के समाज द्वारा अपनी परम्परा के अनुसार अपनी व्यवस्था करने का अधिकार मुख्य बिन्दु था। 1956 में बलवंत राय समिति ने देश में तीन स्तरीय पंचायत व्यवस्था के लिये सिफारिश की थी। उसी के अनुसार जिला, विकास खंड और गांव स्तर पर पंचायतों का गठन हुआ। इस व्यवस्था में ग्राम सभा की भूमिका पर ध्यान नहीं दिया गया।इस समिति की यह मान्यता थी कि गांव समाज अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से ही अपने अधिकार का प्रयोग कर सकता है। इसके लिए फिर से 1978 में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। इस समिति के समक्ष भारत सरकार की ओर गृह मंत्रालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव डाॅक्टर ब्रह्म देव शर्मा ने आदिवासी क्षेत्रों के लिए ग्राम सभा के रूप में गांव समाज को अपनी पूरी व्यवस्था करने के लिए अधिकार देने का प्रस्ताव किया। परन्तु समिति ने उस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसके अनुसार ग्राम सभा को कुछ जिम्मेदारियां दी जा सकती है, अधिकार नहीं।समिति प्रसिद्ध गांधीवादी सदस्य सिद्धराज ढढ्ढा  ने अपनी असहमति दर्ज करते हुए लिखा कि ग्राम सभा पंचायत राज व्यवस्था की आधारशिला होना चाहिए। इसके बिना प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण तो अर्थहीन रहेगा ही वरन् स्वयं लोकतंत्र कमजोर होकर टूट सकता है।अनुसूचित क्षेत्रों के लिए सामान्य पंचायत व्यवस्था असंगत था। संविधान में पंचायत राज के लिए विशेष व्यवस्था करने के लिए 1988 में राजीव गाँधी के नेतृत्व में संविधान संशोधन प्रस्तावित हुआ। इस विधेयक में अनुसूचित क्षेत्रों को पंचायत राज की सामान्य व्यवस्था से बाहर रखा गया था। उसमें सबंधित राज्यपालों से उम्मीद की गई थी कि वे अपने – अपने राज्य में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विशेष व्यवस्था करेंगे। परन्तु इस विधेयक को संसद की मंजूरी नहीं मिल पाई।1990 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आयुक्त डाॅक्टर ब्रह्म देव शर्मा ने राष्ट्पति को 29 वीं रिपोर्ट दिया।इस रिपोर्ट को संसद में बहस के लिए भी रखा गया परन्तु रिपोर्ट पर चर्चा नहीं कराया गया।संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत आयुक्त ने राष्ट्पति को अपनी रिपोर्ट में अन्य बातों के अलावा अंग्रेज़ी राज्य की उस कानून व्यवस्था को संविधान की भावना और नैसर्गिक न्याय के खिलाफ बताया, जिसके कारण वो वह जन्मजात अपराधी हो गया और उसके जिंदगी के बुनियादी अधिकार की कदम – कदम पर अवमानना होती रही है। इसमें शिफारिश की गई कि कम से कम आदिवासी इलाकों में पूरी तरह स्वशासी व्यवस्था की जाए जिसमें स्थानीय समाज को अपना जीवन चलाने और पूरे संसाधनों के रखरखाव और उपयोग का असंदिग्ध रूप से पूरा अधिकार हो। यही गांव गणराज्य का सार तत्व है।1993 में पंचायत व्यवस्था की स्थापना के लिए भारत के संविधान में  73 वां संशोधन कर भाग 9 को जोड़ा गया। इस संशोधन के अनुसार संविधान में ‘ग्राम सभा’ की प्रतिष्ठा तो हुई परन्तु उसके कर्तव्य और शक्तियों को राज्य विधान मंडलों द्वारा तय करने के लिए छोड़ दिया गया। अनुच्छेद 243 (ङ) ‌उपभाग(1) के तहत अनुसूचित क्षेत्रों को इस व्यवस्था से अलग रखा गया।परन्तु उसी अनुच्छेद के उपभाग(4) में संसद को यह अधिकार सौपा गया कि उस भाग के प्रावधानों में जरुरी फेरबदल कर अनुसूचित क्षेत्रों लागू कर सकता है। यह देश का पहला कानून है जो आदिवासी इलाकों में नेमी तौर पर सीधे लागू नहीं हुआ।पंचायत राज की सामान्य व्यवस्था अनुसूचित क्षेत्रों पर लागू नहीं होने बाबजूद कई राज्यों, जैसे मध्यप्रदेश,ओङिशा ने सामान्य व्यवस्था के अनुरूप पंचायतों का चुनाव करा डाले। इस चुनाव के बाद जनवरी 1995 में दिलिप सिंह भूरिया समिति का प्रतिवेदन आया। जिसमें अनुसूचित क्षेत्रों में, खासतौर से ग्राम सभा के बाबत अपना प्रतिवेदन तैयार कर सरकार को सौपा। भूरिया समिति का प्रतिवेदन आने के बाद आंध्रप्रदेश में हो रहे पंचायत चुनावों को चुनौती दी गई।माननीय उच्च न्यायालय ने उन चुनावों पर रोक लगा दी।उसने नया कानून बनाये बिना चुनाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी उस आदेश को कायम रखा।तब जाकर अनुसूचित क्षेत्रों के लिए स्वशासी व्यवस्था के बाबत प्रस्तुत विधेयक संसद में एकमत से पारित हुआ। उसके बाद 24 दिसम्बर 1996 को उसे राष्ट्पति ने अनुमोदन किया।उसी दिन से पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996( संक्षेप में ‘पेसा कानून’) देश के सभी अनुसूचित क्षेत्रों पर लागू हो गया। 

पंचायत राज्य का विषय है, इसलिए  पेसा कानून को लागू करने के लिए अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्य सरकारों को इसका नियम बनाना था। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 26 साल बाद 15 नवंबर 2022 को नियम बनाकर लागू किया गया है। दूसरी ओर सरकार प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के अपने रास्ते पर बेरोकटोक आगे बढ़ रही है और सभी कानूनों, यहां तक  कि संविधान को भी लांघ रही है, ताकि क्रोनी पूंजीवादी ताकतों और बङे उधोगों के लिए लाभ सुनिश्चित किया जा सके। आदिवासी समुदाय द्वारा संवैधानिक प्रावधानों को आधार बनाकर विकास परियोजनाओं के विरोध में  प्रस्ताव पारित किया है। परन्तु इस विरोध को दरकिनार करते हुए स्थानीय प्रशासन राज्य सरकार के इशारे पर कार्पोरेट के पक्ष में निर्णय ले रहा है और गैर संवैधानिक तरीके से परियोजना कार्य को आगे बढा रहा है।आदिवासी समुदायों द्वारा किये जा रहे अहिंसक आंदोलनों का दमन किया जा रहा है। विगत 14 – 15 सितम्बर 2024 को मलाजखंड बालाघाट में भारतीय संविधान की पाँचवी अनुसूची वाले राज्य – मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश, ओड़िसा, तेंलगाना, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात के अनुसूचित क्षेत्र के आदिवासी और जन संगठनो के प्रतिनिधियों के राष्ट्रीय सम्मेलन में यह माना कि पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 की मूल भावना के अनुरूप व्यवस्था बनाने में अनेक विसंगतियों और कमियों के कारण कठिनाई सामने आ रही है।इन विसंगतियों को दूर कर अनुसूचित क्षेत्रो में स्वशासन और सुशासन की स्थापना हेतु सुसंगत ढांचा तैयार करने की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाया जाना अनिवार्य है। अनुसूचित क्षेत्रों में स्वशासन और सुशासन तभी कायम होगा जब भारत के अनुसूचित क्षेत्रो पर लागू राज्य पंचायत राज कानूनों को रद्द कर संविधान और पेसा कानून सम्मत राज्य अधिनियम / नियम को बनाया जायेगा।पेसा कानून की धारा 4(घ) के तहत ग्राम सरकार एवं स्वशासी जिला सरकार का गठन करते हुए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार उन्हें हस्तांतरित किया जायेगा तथा संविधान के अनुच्छेद 243 (छ), 243 (ज) एवं 275(1) के अंतर्गत उन्हें समस्त निधि के प्रशासनिक और वित्तीय नियंत्रण हेतु सक्षम बनाया जाय ताकि स्वायत्त शासन की संवैधानिक भावना चरितार्थ हो।पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्रो की ग्राम सभाओं को स्थानीय समाज की परंपराओं और रूढ़ियों के अनुसार विवाद निपटाने हेतु सक्षम न्यायालय के रूप में अधिसूचित किया जाय ताकि पुलिस या प्रशानिक तंत्र ऐसे मामलो का निराकरण करने हेतु संबंधित प्रकरणो को ग्राम सभाओं के समक्ष प्रस्तुत करें। अपील के लिए भूरिया समिति की सिफारिश के अनुसार प्रावधान बनाए जायें। 

संविधान की 11वीं अनुसूची को पेसा कानून से संगत बनाते हुए उसमें जल, जंगल और खदान तथा न्याय निष्पादन विषय जोड़े जायें।अनुसूचित क्षेत्रों के लिए आंध्र प्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भू – हस्तांतरण विनियमन 1970 (संशोधित) की तर्ज़ पर सभी राज्यों की भूराजस्व संहिता में संशोधन किये जाने जैसी अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाने का प्रस्ताव पारित किया गया। 

राज कुमार सिन्हा- बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ