आर्थिक स्वतंत्रता के लिए भूमि तलाशतीं महिला पशुपालक
सुमन आजमगढ़ जनपद, उत्तर प्रदेश के सोहवल गांव की निवासी हैं। उनके पति प्रवासी मजदूर हैं और सुमन गांव में अपने दो बच्चों के साथ रहती हैं। गांव में परिवार की देखभाल करते हुए बकरी पालन को उन्होंने आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत बनाया है।
सुमन बताती हैं कि इस काम से उन्हें साल भर में दो से तीन बकरी बेचने पर लगभग 15-20 हजार की कमाई हो जाती है। बकरी पालन से होने वाली कमाई सुमन अपने हिसाब से संभालती और खर्च करती हैं। लेकिन बीते कुछ सालों से उन्हें अपनी बकरियों को चरवाने में काफी समस्या का सामना करना पड़ रहा है जिसका बुरा असर उनकी आजीविका पर भी आ रहा है। सुमन जैसी कई महिलाओं को रोजाना अपने बकरियों के लिए अच्छी चारा भूमि ढूंढने की मशक्क्त करनी पड़ती है।
सोहवल जैसे कई गांव जो पूर्वांचल एक्सप्रेसवे से बिल्कुल सटे हुए हैं, वहां पशु चरवाने के लिए ज़मीन ढूंढने की नई चुनौती बीते कुछ सालों से पैदा हो गई है। सार्वजनिक चारागाह भूमि की गैरमौजूदगी और एक्सप्रेसवे निर्माण के कारण स्थानीय भूगौलिक स्थिति में हुए बदलाव इसके प्रमुख कारण हैं।
इसमें सबसे बड़ी संख्या महिलाओं की है जो अपने घरेलु काम के साथ अपने पशुओं के पालन-पोषण के लिए पूर्वांचल एक्सप्रेसवे के किनारे बैठकर जोखिम उठाने को मजबूर हैं। अधिकतर बकरी पालन के काम में शामिल यह महिलाएं छोटे स्तर पर अपनी आय का सृजन करती हैं।
बकरियां अपने छोटे आकार के कारण अक्सर छह-लेन-एक्सप्रेसवे के अगल-बगल लगे कटीले तारों को पार कर जाती हैं जो बेहद खतरनाक है और उन्हें चरवाती महिलाओं को रोज़ाना पूर्वांचल एक्सप्रेसवे के कर्मचारियों की डांट सहनी पड़ती है। एक्सप्रेसवे के बगल बने सर्विस लेन पर बैठ कर पशु चरवाने के कारण आए दिन सड़क दुर्घटना में महिलाओं को अपने पशुओं के घायल होने या मारे जाने का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
चारा के लिए जमीन ढूंढ़ने की नई मुसीबत
फूलपुर तहसील में ऐसी ग्राम पंचायतें जो एक्सप्रेसवे से बिल्कुल सटी हुई हैं, उनकी स्थिति जानने के प्रयास में सम्बंधित अधिकारियों से यह जानकारी मिली कि मक्तल्लीपुर, मोइनउद्दीनपुर, मोलानीपुर और कलाफतपुर ग्राम पंचायत में चारागाह के लिए जमीन नहीं छोड़ी गई है।
मोइनउद्दीनपुर ग्राम पंचायत में जंगल भूमि है लेकिन आबादी क्षेत्र से काफी दूर है जिसके कारण पशुओं को वहां तक चरवाने के लिए ले जाना मुश्किल होता है। इन गांव में चारागाह भूमि का न होना एक पुरानी समस्या रही है, लेकिन ग्रामीणों की मुश्किल तब बढ़ी जब उनके इलाके में पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का निर्माण हुआ।
पूर्वांचल एक्सप्रेसवे उन इलाकों से गुजरा है जहां पहले कभी सड़क नहीं थी बल्कि जमीन का उपयोग कृषि और पशु चरवाने के कार्यों में हो रहा था। एक्सप्रेसवे निर्माण के लिए हुए अधिग्रहण के बाद से स्थानीय इलाके प्रभावित हुए हैं। अधिग्रहण में बड़े स्तर पर कृषि और गैर कृषि जमीन जाने की वजह से हालत यह है कि एक्सप्रेसवे से सटे कई गांव सिर्फ आबादी क्षेत्र में सिमट गए हैं।
सुमन ने बताया कि पहले उनके पास एक भैंस थी लेकिन एक्सप्रेसवे आने के बाद उन्होंने उसे बेच दिया क्योंकि अब उनके इर्द-गिर्द पर्याप्त खाली जमीन या चरने लायक भूमि नहीं बची जिसकी वजह से पशु के रख-रखाव में दिक्कत पैदा हो गई थी।
पूर्वांचल एक्सप्रेसवे के इर्द-गिर्द आने वाली ऐसी कई ग्राम पंचायतें हैं जहाँ लोगों के पास अपने पशुओं को चरवाने के लिए एक्सप्रेसवे के किनारे लाने के अलावा कोई और चारा नहीं है।
मक्तल्लीपुर, मोइनउद्दीनपुर, मोलानीपुर और कलाफतपुर ग्राम पंचायत में आने वाले कई गांव जहाँ से पूर्वांचल एक्सप्रेसवे गुज़र रहा है, उन स्थानों पर पहले ग्राम निवासियों के खेत और आम के बाग थे जहाँ पशुपालक अपने पशु पीढ़ियों से चरवाते रहे हैं। मक्तल्लीपुर की सोमवती और उनके पति के पास 7-8 बकरियां हैं और वह दोनों मिलकर उन्हें चरवाते हैं।
यह दंपत्ति अपने बकरियों को चरवाने के लिए पूर्वांचल एक्सप्रेसवे के किनारे आने पर मजबूर है। उन्होंने बताया कि एक्सप्रेसवे आने से पहले जब यहाँ बाग थे तब भी वो यहीं अपने पशु चरवाने के लिए लाते थे। सोमवती के पति दिहाड़ी मज़दूर हैं और वह बताती हैं कि बकरी पालन का काम उनके लिए आय का एक अहम साधन है। जब कहीं काम नहीं मिलता तो कम से कम बकरी पालन से उनकी आजीविका चल पाती है। सोमवती ने बताया कि एक्सप्रेसवे के बगल अपनी बकरियां चरवाना एक जटिल समस्या है और हर वक्त दुर्घटना का खतरा बना रहता है। इसके बावजूद वह यहाँ आने को इसलिए मजबूर हैं क्योंकि गांव में पशुओं के लिए चरने लायक खाली ज़मीन उपलब्ध नहीं है। इन इलाकों में सोमवती जैसे कई अनेक ग्रामीण सार्वजनिक चारागाह भूमि के आभाव और एक्सप्रेसवे आने से हुए बड़े भूगौलिक बदलाव के कारण अपने पशुओं के लिए अच्छी चारा भूमि के लिए भटक रहे हैं।
सार्वजनिक चारागाह भूमि की गैरमौजूदगी एक गंभीर विषय
पिछले कुछ वर्षों से उत्तर प्रदेश में पशुओं के लिए चरने लायक भूमि में बड़ी गिरावट आई है। इसमें सबसे अधिक चारागाह भूमि और जंगल भूमि में हो रही कमी को दर्ज किया गया है जिसका खामियाज़ा पशुपालकों को झेलना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में पूर्वांचल एक्सप्रेसवे जैसी बड़ी परियोजनाएं पहले से चरने लायक भूमि में कमी को बढ़ा रही है और स्थानीय जनता के सामने नई मुसीबत पैदा कर रही है।
फूलपुर तहसील कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार मक्तल्लीपुर, मोइनउद्दीनपुर, मोलानीपुर ग्राम पंचायतों में आने वाले गांव में चारागाह भूमि नहीं छोड़ी गई है। ये एक बड़ी भूल है जहाँ जवाबदेह सरकारी विभागों द्वारा चारागाह भूमि के महत्त्व को नज़रअंदाज़ किया गया है। हाल ही में, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा चारागाह भूमि पुनः प्राप्त करने के अभियान की शुरआत की है। लेकिन ऐसी पंचायतें जहाँ चारागाह भूमि मौजद ही नही हैं वहाँ सबसे पहले सार्वजनिक चारागाह भूमि के लिए ज़मीन सुनिश्चित करते हुए उन्हें चारागाह का रूप देने की ज़रूरत है।
स्थानीय स्तर पर महिलाओं के आजीविका पर ग्रहण
हाल ही में जारी महिला श्रम भागीदारी के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं में बढ़त तो दर्ज की गई है लेकिन आर्थिक संभावनाओं का अभाव महिलाओं के सम्बन्ध में अभी भी मौजूद है। स्थानीय स्तर पर परंपरागत रूप से मौजूद आजीविकाएं खत्म होने के संकट से जूझ रही हैं। वर्तमान में, बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत रूप से बकरी पालन का काम एक फायदे का सौदा है जो केवल बड़ी पूंजी से संभव है। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण स्तर पर महिलाओं के लिए बकरी पालन जैसे कार्य जो पारम्परिक रूप से रोज़गार का एक किफायती साधन रहे हैं उन्हें खत्म करने का माहौल पैदा किया जा रहा है। इस प्रकार कम पूंजी से चलने वाले ज़्यादातर काम पर हमले जारी हैं। ग्रामीण क्षेत्र में बकरी पालन पारम्परिक तौर पर महिलाओं द्वारा किया जाने वाले कमाई के दुर्लभ विकल्प में से एक है। बकरी पालन में बड़े तौर पर पिछड़ी और दलित जातियों की महिलाएं जुडी हुई हैं और यह घर तथा गांव में रहते हुए आजीविका चलाने का एक मज़बूत ज़रिया है।
पशुपालन जैसे कुछ काम विकल्प के रूप में तो मौजूद हैं लेकिन इन कामों में कार्यस्थल की खराब स्थिति, अनिश्चित्ता और सम्मानजनक आजीविका चलाने में हो रही कठिनाइयां बड़ी बाधा हैं। इन समस्याओं का समाधान किए बगैर महिलाओं के रोज़गार के अवसरों को मज़बूत करना मुमकिन नहीं है। बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी वाले आजीविका के इस स्रोत को सरकार द्वारा गंभीरता से न लेना और सामुदायिक संसाधन के निरन्तर नुकसान के कारण इस काम से जुड़े लोगों में हताशा का माहौल पैदा हो रहा है। ऐसी चुनौतियां आज के समय में ग्रामीण इलाकों के आत्मनिर्भर समाज के दोहन को भी बयां करती है।
क्या होने चाहिए ज़रूरी कदम
ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक लम्बे समय से चिंताजनक स्थिति में है जिससे उबरना बेहद ज़रूरी है। महिला रोज़गार को बढ़ाने का एक असरदार तरीका स्थानीय आजीविका के विकल्पों को व्यवस्थित करते हुए संभव है। देश की कई सरकार महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए उनके हाथ में रूपये दे रही है। लेकिन आजीविका सृजन करने वाले माहौल के बगैर महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता सिर्फ नकद देने से संभव नहीं है। ऐसे रोज़गार के साधन जिनके ज़रिए महिलाओं को आर्थिक रूप से मज़बूत किया जा सकता है उस दिशा में सबसे ज़रूरी है कि स्थानीय स्तर पर मौजूद काम के प्रति प्रोत्साहन, एहमियत और जवाबदेही सुनिश्चित की जाए। पूर्वांचल एक्सप्रेसवे से सटे इन पंचायतों में चारागाह भूमि का अभाव और एक्सप्रेसवे से हुए भूगौलिक बदलाव के इस दोहरी समस्या से निपटने की ज़रूरत है। तत्काल रूप से, प्रदेश में ऐसी पंचायतें जहाँ चारागाह के लिए कोई ज़मीन नहीं छोड़ी गई है वहां ज़मीन मुहैया कराई जाए। मज़बूत पशुपालन के लिए अच्छी सामुदायिक चारागाह भूमि ज़रूरी है जिससे सामूहिक रूप से परिवारों का कल्याण हो। चारागाह भूमि की ज़रूरत उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में और अहम हो जाती है जहाँ छुट्टा पशुओं द्वारा फसल बर्बाद होने की गंभीर समस्या पिछले कुछ सालों से उतपन्न हुई है। इसके साथ ही सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए कि किसी भी बड़ी परियोजनाओं को अंजाम देते समय स्थानीय इलाकों में होने वाले नुकसान को रोका जाए। पूर्वांचल एक्सप्रेसवे से हुए पारिस्थितिक बदलाव और उससे प्रभावित होने वाले आजीविकाओं को नीतियों के केंद्र में लाने की आवश्यकता है ताकि ज़रूरी हस्तक्षेप और जवाबदेही के ज़रिए ऐसी समस्याओं का समाधान निकाला जा सके।
लेखक राज शेखर शोधकर्ता व सामाजिक कार्यकर्ता हैं
This article is published as a part of the Smitu Kothari Fellowship 2024 of the Centre for Financial Accountability, Delhi.
This article was originally published in Down to Earth and can be read here.
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