गढ़चिरौली के आदिवासी समुदाय और नागरिक संगठन ने महाराष्ट्र और केन्द्र सरकार से मांग की है कि गढ़चिरौली में खनन संबंधी सभी मंजूरियां और गतिविधियों का रोका जाए और पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए), विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) आदि सहित पूर्ण पारिस्थितिक, जल विज्ञान और सामाजिक आकलन के साथ सभी अनुमोदनों की समीक्षा करें। वनों और बाघ गलियारे को संरक्षित क्षेत्रों के रूप में मान्यता दें और वन अधिकार अधिनियम, 2006 और पेसा कानून के तहत विनियमों का अनुपालन सुनिश्चित किया जाए। ग्राम सभाओं का पारदर्शी जन सुनवाई के माध्यम से आदिवासी समुदायों के निर्णयों का सम्मान किया जाए।
क्या हो रहा है?
गढ़चिरौली, जहां महाराष्ट्र का 70% से ज़्यादा वन क्षेत्र है, खनन संबंधी गतिविधियों के कारण विनाश के कगार पर है। यह क्षेत्र गोंड और माडिया जनजातियों जैसे अनगिनत मूलनिवासी समुदायों के लिए सांस्कृतिक और आर्थिक जीवनरेखा का काम करता है। फिर भी, ओम साईं स्टील्स एंड अलॉयज़ प्राइवेट लिमिटेड, जेएसडब्ल्यू स्टील्स लिमिटेड, सनफ्लैग आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड जैसी बड़ी कंपनियां राजनीतिक समर्थन से इसे खनन का केंद्र बना रही है। हाल ही में, लॉयड्स मेटल्स एंड एनर्जी को गढ़चिरौली रिजर्व फ़ॉरेस्ट में 937 हेक्टेयर वन भूमि पर स्थित एक लाख से ज़्यादा पेड़ों को काटकर लौह अयस्क प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित करने के प्रस्ताव के लिए पर्यावरणीय मंज़ूरी मिल गई है । इसका मतलब यह भी है कि भारत के सबसे महत्वपूर्ण बाघ गलियारों में से एक नष्ट हो जाएगा ।सुरजागढ़, कोंसारी, दुर्गापुर और इंद्रावती सहित कई खनन और प्रसंस्करण परियोजनाएं चल रही हैं। हैरानी की बात यह है कि कई पर्यावरणीय स्वीकृतियां ग्राम सभा (ग्राम परिषद) से परामर्श या सहमति के बिना ही दे दी गई हैं, जो कि पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार), 1996 और वन अधिकार अधिनियम, 2006, दोनों के तहत आवश्यक है।गढ़चिरौली में 1,567 गांव हैं, जिनमें से 1,311 पेसा के अंतर्गत आते हैं। इस संरक्षण के कारण, इस क्षेत्र में खनन संबंधी गतिविधियां ग्रामीणों की सहमति के बिना नहीं हो सकती। फिर भी, स्थानीय लोगों का कहना है कि जनसुनवाई के दौरान उन्हें बहिष्कृत या धमकाया जाता है, जिससे उनकी आवाज़ अनसुनी हो जाती है। कोई पूर्व और सूचित सहमति नहीं होती है ।बैठक और परामर्श अक्सर दूर-दराज जगहों पर आयोजित किए जाते हैं, जिससे प्रभावित ग्रामीणों के लिए उनमें शामिल होना मुश्किल हो जाता है। “सुरक्षा” का बहाना बनाकर, अधिकारी स्थानीय आवाज़ों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
सामाजिक प्रभाव
इस क्षेत्र में औद्योगिक और खनन परियोजनाएं न केवल आदिवासी समुदायों के पवित्र वनों पर अतिक्रमण कर रही हैं, बल्कि कई प्रजातियों के प्राकृतिक वन्यजीव आवासों को भी नष्ट कर रही हैं। महुआ और तेंदू संग्राहकों, निर्वाह कृषकों और वन-निर्भर समुदायों की आजीविका खतरे में है, क्योंकि वन भूमि का उपयोग बिना किसी सहमति या सुरक्षा उपायों के खनन और अन्य औद्योगिक गतिविधियों के लिए किया जा रहा है। उनमें से कई लोगों को उनकी आजीविका के नुकसान की भरपाई के लिए आकर्षक नौकरियों का झूठा वादा किया जा रहा है, लेकिन अंततः उन्हें सुरक्षा गार्ड जैसी नौकरियों में धकेल दिया जाता है, और खनन से संबंधित श्रम कार्यों में भी लगाया जाता है।बाहरी लोगों के आगमन के साथ, लिंग-आधारित हिंसा में चिंताजनक वृद्धि हुई है। महिलाएं उत्पीड़न में वृद्धि, अकेले बाहर निकलने में डर और अपने ही घरों, अपने गांवों में बढ़ती असुरक्षा की भावना की शिकायत करती हैं। ‘खनन, दमन और प्रतिरोध’ नामक 2023 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि उनकी सुरक्षा, स्वायत्तता और जीवनशैली धीरे-धीरे कम होती जा रही है ।
पारिस्थितिकीय परिणाम
बड़े कॉर्पोरेट संगठनों द्वारा संचालित अधिकांश खनन परियोजनाएं प्रतिपूरक वनरोपण का वादा करती हैं। वनरोपण के लिए चुने गए स्थल लगभग हमेशा प्रभावित क्षेत्रों से मीलों दूर होते हैं, जिससे कोई वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं होता है। लौह अयस्क प्रसंस्करण में अयस्क के लाभकारीकरण और धूल नियंत्रण के लिए काफ़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। प्रसंस्करण के लिए पानी के अत्यधिक उपयोग से भूजल स्तर में कमी आ सकती है, जिससे पानी की कमी का ख़तरा बढ़ सकता है। लाखों पेड़ों को काटने से सुरक्षात्मक वनस्पति और ऊपरी मृदा नष्ट हो जाएगी, जिससे यह क्षेत्र मृदा अपरदन, मृदा क्षरण और नदियों में गाद जमा होने के प्रति संवेदनशील हो जाएगा। लौह अयस्क खनन से नदियों में रासायनिक अपशिष्ट प्रवाहित होते हैं, जिससे मीठे पानी का रंग लाल हो जाता है और वह पीने योग्य नहीं रह जाता। संयंत्र से निकलने वाला पानी भारी मात्रा में तलछट और धातुओं को भी नदियों में ले जाता है , जिससे पानी की गुणवत्ता और भी गिर जाती है और प्रदूषण का खतरा बढ़ जाता है। इससे न केवल आस-पास रहने वाले स्थानीय आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य पर, बल्कि इन जल स्रोतों पर निर्भर वन्यजीवों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र के लोग सिलिकोसिस, निर्जलीकरण और जठरांत्र संबंधी जलन जैसी विभिन्न बीमारियों से पीड़ित हो जाएंगे। खदान के बंद होने के लंबे समय बाद भी लौह अयस्क शरीर के सामान्य द्रव नियमन में बाधा डाल सकता है। वनों की कटाई और मृदा अपरदन के कारण नदियों में तलछट में वृद्धि होगी, जिससे गढ़चिरौली बाढ़ के प्रति और भी अधिक संवेदनशील हो जाएगा, जिससे फसलों, घरों और बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचेगा।
मानव और वन्यजीव संघर्ष
गढ़चिरौली में घना जंगल का एक पारिस्थितिकी तंत्र है जो ताडोबा और इंद्रावती टाइगर रिजर्व को जोड़ता है, जो बाघों, तेंदुओं और हाथियों के लिए एक महत्वपूर्ण वन्यजीव गलियारा है।
कई खनन परियोजनाएं, जैसे कि लॉयड्स मेटल्स एंड एनर्जी का हालिया प्रस्ताव, बाघ गलियारे के दायरे में आने के बावजूद, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड से मंज़ूरी नहीं ले पा रही हैं । इस तरह के अतिक्रमण से क्षेत्र में वन्यजीवों की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा है। जब वन्यजीवों पर खतरा मंडराता है और उनके आवास छीन लिए जाते हैं, तो वह जंगलों से निकलकर रिहायशी इलाकों में आ जाते हैं, जिससे मानव- वन्यजीव संघर्ष का खतरा बढ़ जाता है। अकेले चंद्रपुर जिले में, मई 2025 में बाघों के हमलों में 11 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई।यह स्थिति और भी बदतर हो सकती है। क्योंकि मनुष्य जंगली आवासों पर अतिक्रमण कर रहे हैं। गढ़चिरौली में जो हो रहा है, वह आदिवासी समुदायों के सम्मान, लोकतंत्र और भविष्य पर हमला है। जंगलों का सफाया किया जा रहा है, नदियों को ज़हरीला किया जा रहा है और पवित्र भूमि को अपवित्र किया जा रहा है और यह सब मुनाफे के लिए हो रहा है। इसलिए आदिवासी समुदाय और नागरिक समाज क्षेत्र में खनन पर तत्काल रोक लगाने की मांग कर रहे हैं।
दूसरी ओर पर्यावरणविदों के एक समूह ने केंद्र सरकार, राजस्थान सरकार और बाघ संरक्षण प्राधिकरण से तत्काल अपील की है और अरावली पहाड़ियों में खनन गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए सरिस्का बाघ अभयारण्य (एसटीआर) की सीमाओं में बदलाव के प्रस्ताव पर अपनी चिंता व्यक्त की है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह निर्णय एक चिंताजनक मिसाल कायम कर सकता है और देश भर में वन्यजीव संरक्षण प्रयासों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।इस संबंध में पर्यावरण समूह “पीपुल फॉर अरावली” ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, राजस्थान के मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) को ज्ञापन सौंपा है। सरिस्का बाघ अभयारण्य की सीमाओं को पुनः निर्धारित करने का उद्देश्य है कि कम से कम 50 संगमरमर, डोलोमाइट, चूना पत्थर और चिनाई की खदानों को फिर से अनुमति देना। जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेश के बाद बंद कर दिया गया था।
राज कुमार सिन्हा I बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ
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