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राष्ट्रीय खनिज विकास निगम द्वारा पन्ना में पिछले 60 वर्षों से खनन के बावजूद पन्ना जिले का बेहतर बुनियादी सुविधाओं से दूर होना तथा बक्सवाहा बंदर डायमंड प्रोजेक्ट से ऑस्ट्रेलियाई  बहुराष्ट्रीय कंपनी रियो टिंटो के हटने के बाद, जब एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्री लिमिटेड खनन करेंगी तब  हम बक्सवाहा को किस रूप में देखते। आज पारंपरिक व्यवसाय खास तौर पर किसानी, हस्तशिल्प आदि का कार्य छोड़ कर लोग एक स्थाई नौकरी पाना चाहते। जिसमें एक मासिक आय तय हो, शारीरिक श्रम कम हो। इसी रूप में बक्सवाहा खनन क्षेत्र के स्थानीय लोग हीरा खनन परियोजना को देखते हैं। शाहपुरा निवासी रतिराम यादव कहते आप गांव में किसी से भी पूछ लें हम जंगल से 2 से 3 लाख रुपए प्रति वर्ष कमाते तथा हमारी मवेशियों को चारागाह भी मिलता है। सरकार को भी इस क्षेत्र की लघु वनोपज से आय प्राप्त होती है संसद में पर्यावरण मंत्री ने बताया कि मध्य प्रदेश से 2018 में 1339 करोड़ रुपए की आय लघु वनोपज से प्राप्त हुई। स्थानीय लोग जंगल से लघु वनोपज के रूप में भले ही लगभग 2 से 3 लाख रुपए कमाते हो, लेकिन यदि स्थाई रोजगार मिले तो वह इस जंगल को काटने तैयार है। शाहपुरा के जीवन लाल आदिवासी कहते हैं कि यदि 5 पेड़ में से 1 पेड़ कट जाए और हमें रोजगार मिल जाए, तो बताइए क्या गलत है? स्थानीय लोगों  को यह एहसास नहीं है कि बक्सवाहा खनन परियोजना में उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने की संभावना नहीं है, बिड़ला समूह द्वारा पर्यावरण मंत्रालय को सौंपे दस्तावेज के अनुसार – किंबरलाइट चट्टानों को तोड़ने मशीनों का उपयोग करने की योजना है जिससे आवश्यक श्रम को कम किया जा सके। कंपनी ने कहा कि वह परियोजना में 100 स्थाई रोजगार प्रदान करेंगे और अनुबंध श्रमिकों के अलावा 300 अतिरिक्त रोजगार दे पाएंगे। यह लगभग 700 परिवारों के 3000 लोगों की आबादी वाले सर्वाधिक प्रभावित 5 गांव की आबादी के हिसाब से ही कम है। इन गांवों के तो  विस्थापित होने का खतरा भी है जबकि कुल 17 गांव प्रभावित हैं, फिर भी गांव में कंपनी के वादों की गलत जानकारी है, गांव के लोग कहते मुझे पता है बिडला कंपनी के मालिक का एक वीडियो देखा जिसमें उन्होंने 3000 लोगों को रोजगार देने की बात कही है, लेकिन जब गांव के लोगों को दस्तावेज दिखाए गए, जो बिड़ला समूह ने पर्यावरण मंत्रालय को सौंपे थे जिसमें वास्तविक आंकड़ों का उल्लेख था, लोगों के चेहरे पर असमंजस की लहर दौड़ गई। यह नहीं हो सकता, हम तभी खनन करने देंगे, जब हमें नौकरी मिलेगी “अगर सिर्फ 100 स्थाई नौकरी है तो हमें क्या मिलेगा? यह नौकरियां, वैसे भी कंपनी के अधिकारियों के रिश्तेदारों व दोस्तों के पास जाएंगी”। सगोरिया गांव के लोग जोर देकर कहते यदि हमें नौकरी नहीं मिलेगी तो हम खनन नहीं होने देंगे, पेड़ों से चिपक जाएंगे, उन्हें गले लगाकर डटे रहेंगे, कटने नहीं देंगे।
यह लोगों को विश्वासघात की तरह लगा, लोगों को सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के धरातल पर उतरने की अपेक्षा कंपनी पर ज्यादा भरोसा है। तेइयामार गांव, जो जंगल के एक किनारे पर स्थित है, विकास प्रमुख मुद्दा है, गांव के विकास के प्रति सरकार की विफलता के विरोध में 2019 के आम चुनाव का इस गांव के लोगों द्वारा बहिष्कार किया गया, तेईयामार निवासी छोटेलाल यादव कहते हमें आजाद हुए कितने साल हो गए, 60 साल? 70 साल? और हमारी सरकार हमें पीने का पानी, अच्छी शिक्षा व स्वास्थ्य भी मुहैया नहीं करा पाई, हम कब तक प्रतीक्षा करेंगे? मेरे दादाजी ने इंतजार किया, कि उनके बेटों का बेहतर विकास होगा, उनके बेटे ने भी प्रतीक्षा की और क्या मुझे भी अब इंतजार करना चाहिए? अगर यह हीरा हमें सुविधाएं दे सकता तो हम उन्हें क्यों ना लें? क्या हमें खुद को बचाना चाहिए या जंगल को? छोटेलाल ने रियो टिंटो कंपनी के सामुदायिक संबंध प्रमुख के रूप में काम किया 2005 में जब कंपनी में शामिल हुए तो उन्हें ₹3000 प्रतिमाह मिलते थे और 2016 में कंपनी के बंद होने के समय उन्हें ₹13000 प्रति माह तथा अन्य लाभ के रूप में राशि प्राप्त हुई।
गांव के लोगों से बातचीत करने पर पता चलता कि आदिवासी समुदाय जिनकी जंगल पर अधिक निर्भरता है, बक्सवाहा में हीरा खनन परियोजना के खिलाफ है। शाहपुरा में आधी आबादी सगोरिया में एक तिहाई, जबकि तेइयामार में  आदिवासी परिवार नहीं है। यादव समाज जिनके पास बड़ी जोत व पर्याप्त मवेशी हैं उनमें अधिकांश हीरा खनन परियोजना के पक्ष में है। यादवों के विपरीत आदिवासियों की भूमि कमजोर व गैर मान्यता प्राप्त है 2006 का वन अधिकार अधिनियम, वनवासियों को उनकी भूमि पर कानूनी मान्यता देता लेकिन बहुत कम आदिवासियों को इस कानून के बारे में पता है। इस प्रकार उनकी जोत की अस्थिर कानूनी स्थिति, उन्हें यादवों की तुलना में उपज के लिए जंगलों पर अधिक निर्भर बनाती है। आदिवासियों को रियो टिंटो के समय में भी बहुत कम लाभ मिला, आदिवासियो को अधिकारों के प्रति जागरूक करने वाले अरविंद निषाद कहते कि रियो टिंटो के समय से अधिकांश नौकरियां  गांव के यादव व दलित समुदाय के पास गई, आदिवासियों का कौशल उन्हें पर्यवेक्षी भूमिकाएं दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं था और कंपनी में श्रमिक के रूप में शामिल होने पर, उन्हें जंगल की तुलना में कम आमदनी होती थी। इस प्रकार आदिवासियों को हीरा खनन परियोजना से लाभ की बजाय नुकसान ज्यादा है। जबकि यादव समाज के लोग इस शर्त पर तैयार हैं कि उनके नुकसान की भरपाई हो,  शाहपुरा के रतिराम यादव कहते सरकार को हमसे वादा करना होगा कि वह अगले 50 वर्षों तक हमें 5 लाख रुपए वार्षिक देंगे। खनन के प्रति बक्सवाहा क्षेत्र के जंगल से जुड़े गांव  के लोग, इनमें अधिकांश लोग जो अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हैं इसलिए तैयार है क्योंकि वह कंपनी को सरकार की अनुपस्थिति में एक सौदे के रूप में देखते हैं।
अपने अधिकारों के प्रति जागरूक व गांव के बच्चों के बीच बुनियादी शिक्षा का काम कर रहे कसेरा के मनोज  कुमार व महिपाल सिंह कहते हैं कि हमें बिडला कंपनी पर बिल्कुल भरोसा नहीं है, हमारे यहां से 35 किलोमीटर दूर दमोह जिले के बटियागढ़ में बिड़ला कंपनी की सीमेंट फैक्ट्री है इसमें काम करने वाले मजदूरों की  स्थिति दयनीय है कुछ मजदूर मर भी जाते, उनके घर वालो तक को पता नहीं चलता, आसपास के लोगों को डस्ट की समस्या से अस्थमा जैसी बीमारी फैली है लोगों को कंपनी की तरफ से विशेष कोई सुविधाएं प्राप्त नहीं है।
विजयपाल निषाद कहते हमें बिड़ला कंपनी पर भरोसा नहीं, लेकिन हम क्या कर सकते? सरकार बहुत मजबूत है, वह हमारी रोटी के लिए नहीं सुनती, तो पर्यावरण के लिए हमारी क्या सुनेगी।
हीरा खनन परियोजना के कारण लोगों को पानी का गंभीर संकट भी दिखने लगा क्योंकि इस परियोजना में प्रतिदिन लगभग 59 लाख क्यूबिक मीटर पानी की आवश्यकता होगी, जिसका प्रबंध कैसे होगा? यह एक बड़ा गंभीर सवाल है। इस इलाके से एक बरसाती नदी गुजरती और जहां पर हीरा खनन होना वह इसी नदी का इमली घाट कहलाता है, नदी पशु पक्षियों को पानी हमेशा उपलब्ध कराती है, लेकिन अब इसके अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है।
बुंदेलखंड क्षेत्र पहले से ही सूखाग्रस्त क्षेत्र रहा है सेंट्रल ग्राउंड वॉटर अथॉरिटी के अनुसार छतरपुर जिला पानी के गंभीर संकट के तहत सेमी क्रिटिकल श्रेणी में आता है। शाहपुरा गांव के निवासी भगवानदास आदिवासी कहते पिछले साल पर्याप्त बारिश नहीं हुई, इस साल भी शुष्क मानसून रहा, मुझे फसल सिंचाई के लिए पानी खरीदना होगा जिसकी कीमत ₹1000 प्रति घंटे होगी पिछले साल मैंने अपने 3 एकड़ चना खेत के लिए ₹10000 भुगतान किए थे।  सगोरिया निवासी गणपत आदिवासी ने स्थानीय जल स्रोतो का हवाला देते हुए कहा कि “हमारे अधिकांश जल स्रोत जमीन की पत्थर धारा से जुड़े हैं” “हमारी सभी घरेलू और कृषि संबंधी जरूरतें इन स्रोतों के पानी और बारिश से पूरी होती” खनन शुरू होने के बाद मुझे नहीं पता कि पानी के स्रोतों का क्या होगा।
 इस जंगल व जल स्रोतों के खत्म होने से सबसे बड़ा संकट पशु पक्षियों पर होगा पर्यावरण मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालय भोपाल की 2015 की रिपोर्ट में इस जंगल में चौसिंगा, तेंदुआ, चीतल, चिंकारा भालू सहित विभिन्न प्रकार के पक्षी पाए जाते। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण तो इस क्षेत्र को  पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य तक लगभग 250 किलोमीटर के जंगल गलियारा के रूप में दर्शाता है, लेकिन राज्य वन विभाग ने 2020 की अपनी रिपोर्ट में आश्चर्यजनक परिवर्तन करते हुए संभागीय वन अधिकारी ने कहा कि “किसी भी वन्यजीव की, कोई भी विशिष्ट प्रजाति नहीं है, वन्य जीव की स्थिति कम घनत्व के साथ है, साथ ही कोई लुप्तप्राय प्रजाति नहीं देखी गई”।  शाहपुरा के नन्हें आदिवासी के साथ जब दिसंबर 2021 में हमने प्रस्तावित खनन क्षेत्र इमली घाट का भ्रमण किया, तो उन्होंने बताया कि यहां सभी प्रकार के जानवर पाए जाते, जब हमने जोर देकर पूछा कि शेर, चीता भी, तो उन्होंने कहा हां! इस क्षेत्र के बच्चों की पाठशाला में जब हमने बच्चों से बात की तो उन्होंने कहा कि हमें जानवरों से बहुत डर लगता, हम स्कूल नहीं जा पाते, इसलिए जंगल को काटना चाहिए। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण 2016 की रिपोर्ट में यह भी बताया कि केन बेतवा नदी जोड़ो परियोजना में पन्ना टाइगर रिजर्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा जलमग्न हो जाएगा और सिफारिश की कि बाघों के इस प्राकृतिक जंगल को संरक्षित किया जाना चाहिए। इस प्रकार इस क्षेत्र के अस्तित्व पर खतरा है, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी का शोध कहता है कि लेटिन अमेरिका के पेरू देश में नाजका सभ्यता 1500 साल पहले इसलिए खत्म हो गई, क्योंकि वहां ले लोगों ने  जंगल काटकर मक्का कपास की खेती करना शुरू की धीरे-धीरे पर्यावरण संतुलन बिगड़ा और बाढ़ आने से अस्तित्व खत्म।
इतनी सारी बातें करने के बाद शाहपुरा के जीवन लाल व अन्य नौजवान आपस में चर्चा करते हुए कहते कि हीरा भी मिल जाए व जंगल ना कटे? ऐसा कुछ हो सकता, तब उनके दिमाग में आता कि भूमिगत खनन किया जाए, लेकिन उन्हें इसके बारे में ज्यादा कोई जानकारी नहीं है। कोरबा, छत्तीसगढ़ की भूमिगत खदान के बारे में बताते हुए समझाया कि यह तो वैसे ही है जैसे रेत की गुफा, गांव के बच्चे खेल-खेल में बालू में गुफा बनाते है लेकिन उसके ऊपर थोड़ी सा भार रखते ही वह भिसक जाती। तब सहज ही वे पूछ बैठते, आप ही बताओ हमें क्या करना चाहिए?  ग्राम सभा में बात होना चाहिए।  किसी भी उद्योग की स्थापना हेतु पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना 2009 चलन में है जिसके तहत कंपनी को जिला कलेक्टर से वन अधिकार अधिनियम अनुपालन प्राप्त करना होता है, जिसके लिए ग्रामसभा में अनुमति लेनी पड़ती। वन अधिकार अधिनियम वनवासियों को व्यक्तिगत व सामाजिक अधिकार प्रदान करती है जिला कलेक्टर के प्रमाण पत्र के अनुसार शाहपुरा व  सगोरिया ने 11 सितंबर 2020 को परियोजना के लिए अपनी सहमति दे दी। हालांकि शाहपुरा व सगोरिया के लगभग 40 लोग (ग्राम सभा के सदस्य) कहते हमारे यहां ना कोई बैठक हुई, ना  इन मांगों के बारे में हमें पता है। प्रशासन कुछ भी कहने से बच रहा, बार-बार एक बात सामने आ रही कि “यह परियोजना स्थानीय लोगों को रोजगार देने के साथ-साथ छतरपुर में विकास के लिए फायदेमंद होगी”।
वन विभाग 2.15 लाख  पेड़ लगाने  के बदले 10 लाख पेड़ लगाने की बात कर रहा,  लेकिन सरकारी तंत्र की बानगी हम सबको पता है, एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 6 साल में 1638 करोड़ रुपए खर्च करके 209299843 पेड़ लगाने का दावा किया, लेकिन भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती कि राज्य में इसी अवधि के दौरान 100 वर्ग किलोमीटर का जंगल घटा। सूखे बुंदेलखंड में वैसे भी केन – बेतवा लिंक परियोजना व बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे से लगभग 50 लाख पेड़ खतरे में है। निष्कर्षत कंपनी हमें वह कभी नहीं दे सकती, जो जंगल देता है। हमें महात्मा गांधी के प्रकृति दर्शन को समझना होगा, “प्रकृति के पास सभी की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं लेकिन वो किसी की लालच पूरी नहीं कर सकती”।

Picture courtesy: Ankit Mishra

This is a four-part series done for the Smitu Kothari Fellowship and published in the Newspaper Subah Savere. You can find all the other parts of the story here.

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