
मध्यप्रदेश सरकार भविष्य की जरूरत पूरा करने के लिए निजी कंपनियों से 25 वर्षों के लिए चार हजार मेगावाट बिजली खरीदी समझौता करने की तैयारी कर रही है। कंपनीयों ने बिजली की दर 5.83 रुपए प्रति यूनिट तय की है।इसकी अंतिम मंजूरी के लिए मध्यप्रदेश विधुत नियामक आयोग को प्रस्ताव भेजा गया है। जानकार बताते हैं कि यदि प्रस्तावित दर को मंजूरी मिली तो प्रदेश को 25 साल में एक लाख करोड़ रुपए से अधिक अतिरिक्त का भूगतान करना होगा, जिसका भार उपभोक्ताओं को उठाना होगा। मध्यप्रदेश विधुत मंडल के पूर्व अतिरिक्त मुख्य अभियंता राजेन्द्र अग्रवाल ने प्रस्तावित बिजली खरीदी समझौता प्रस्ताव पर विधुत नियामक आयोग के समक्ष पत्र लिखकर आपत्ति दर्ज कराया है।पत्र में कहा गया है कि भारत सरकार द्वारा इस वर्ष कोयले पर सरचार्ज की समाप्ति, जीएसटी दर का युक्तिकरण और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा थर्मल पावर प्लांट में लगने वाला फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (एफजीडी) तकनीक की अनिवार्यता को खत्म करने से विधुत उत्पादन के दरों में कमी के प्रभाव को बिजली खरीदी समझौता में शामिल नहीं किया गया है। उन्होंने आयोग से मांग किया है कि बिजली खरीदी प्रस्ताव व संबंधित पूंजीगत लागत की गहन समीक्षा के बाद ही प्रस्ताव को मंजूरी दें। मध्यप्रदेश में बिजली की उपलब्धता और खरीदी व्यवस्था एक बार फिर विवादों के केंद्र में है। मध्यप्रदेश में प्रस्तावित बिजली खरीदी और निजी कंपनियों से पूर्व में हुए महंगे बिजली खरीदी समझौतों को लेकर उपभोक्ताओं की परेशानी लगातार बढ़ती जा रही है। बिजली दरों में बढ़ोतरी और डिस्कॉम पर बढ़ते वित्तीय दबाव ने राज्य में ऊर्जा प्रबंधन को नई बहस के केंद्र में ला दिया है। ऊंचे दामों पर की जा रही बिजली खरीदी से न सिर्फ घरेलू उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ा है, बल्कि उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
मध्यप्रदेश में पिछले कुछ वर्षों से बिजली दरों में लगातार बढ़ोतरी और बिलों में अनियमितताएं आम उपभोक्ताओं, किसानों और छोटे व्यवसायी के लिए बड़ी समस्या बन चुकी है। राज्य की बिजली खरीद नीतियों, निजी कंपनियों से महंगे समझौतों और वितरण कंपनियों (डिस्काॅम) की अक्षमताओं (लाइन लॉस, बिजली चोरी, प्रबंधन की कमियां और पुराना घाटा) इस सबका बोझ सीधे जनता पर पड़ रहा है। बिजली बिल में एनर्जी चार्ज, फिक्स चार्ज, फ्यूल कॉस्ट, ड्यूटी चार्ज जुड़ते हैं। बिजली की दरों में वृद्धि के अनुपात में ही बाकी सारे चार्ज बढ़ते-घटते हैं। मध्यप्रदेश ने निजी बिजली कंपनियों से महंगी दरों पर बिजली खरीदी का मुद्दा विभिन्न कैग(सीएजी) रिपोर्टों, नीति अध्ययनों और सार्वजनिक बहसों में उठती रही है। यह पुराने पावर पर्चेज एग्रीमेंट, महंगे फिक्स्ड चार्ज और पारदर्शिता की कमी से अधिक जुड़ा हुआ है।मध्यप्रदेश में बिजली उत्पादन और खरीदी का काम तीन मुख्य स्तर पर होता है।मध्यप्रदेश पावर मेनेजमेंट कंपनी राज्य की बिजली वितरण कंपनियों (डिसकाॅम) के लिए बिजली खरीदने की नोडल एजेंसी है, निजी बिजली कंपनियां और राज्य की सरकारी उत्पादन कंपनियां हैं।कैग की विभिन्न रिपोर्टों में पावर मेनेजमेंट कंपनी की नीतियों को लेकर सवाल उठते रहे हैं। जैसे महंगी दरों पर निजी कंपनियों से बिजली खरीदी अनुबंध किया जाना है।कुछ निजी पावर प्लांट्स से बिजली को मार्केट रेट से अधिक कीमत में खरीदा गया, जहां बाजार में स्पॉट रेट कम था। वहां भी बिजली खरीदी अनुबंध के “फिक्स्ड चार्ज” के कारण बिजली महंगी पड़ी। “टेक ऑर पे” अनुबंध प्रावधान के कारण कई निजी कंपनियों के साथ ऐसे समझौते हैं कि बिजली लो या मत लो फिर भी भुगतान करना पड़ेगा। इसके कारण कई बार जरूरत न होने पर भी राज्य को भुगतान करना पड़ा है। एक जानकारी के अनुसार 2020 से 2022 के बीच मध्यप्रदेश सरकार ने निजी बिजली कंपनियों को 1,773 करोड़ रूपए का भुगतान किया, जबकि उनसे एक यूनिट भी बिजली नहीं खरीदी गई।यह लागत उपभोक्ताओं के बिलों में जुड़ती गई। कुछ बिजली खरीदी अनुबंध में “पास-थ्रू” का प्रावधान है, जिससे निजी कंपनियों ने बढ़ी हुई ईंधन की लागत भी राज्य पर डाल दी। मेनेजमेंट कंपनी ने इस महंगे कोयले या ईंधन का पैसा उपभोक्ता पर डाल दिया।कैप्टिव प्राइवेट प्लांटों से बाजार कीमत से अधिक दरों पर बिजली खरीदी गई। पाया गया है कि मध्यप्रदेश ने निजी प्लांटों से 4.50 से 6 रूपए प्रति यूनिट तक बिजली खरीदी गई, जबकि स्पॉट मार्केट दर कई समय पर 2 से 3 रूपए प्रति यूनिट थी। मध्यप्रदेश के पास राज्य उत्पादन बिजली कंपनीयों के पास पर्याप्त क्षमता होने के बाद भी निजी प्लांटों से बड़ी मात्रा में बिजली खरीदने पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है।ऊर्जा अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह बिजली खरीदी समझौता 2010 से 2015 के दौरान हुआ था, जब कोयले की कीमतें अधिक थी। आज स्पॉट मार्केट सस्ता हो गया है, लेकिन पुराने बिजली खरीदी अनुबंध ने मध्यप्रदेश को महंगी बिजली उत्पादन खरीदने के लिए बाध्य किया है।नियामक निगरानी पर्याप्त मजबूत नहीं है।मूल्य निर्धारण और खरीद फैसलों में अधिक पारदर्शिता होना चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार, समान खपत वाले उपभोक्ताओं के लिए 200 यूनिट मासिक खपत पर मध्यप्रदेश में बिल करीब 1,425 रूपए आ रहा है, जबकि छत्तीसगढ़ में 900 रूपए और गुजरात में 785 रूपए है। वहीं 300 यूनिट खपत पर मध्यप्रदेश में 2,342 रूपए जबकि छत्तीसगढ़ में 1,450 और गुजरात में 1,253 रूपए बताया गया है। प्रति यूनिट दरों में वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि देखी जा रही है। कई घरों में औसत घरेलू बिल 15 से 25 प्रतिशत तक बढ़े हैं। जिसके कारण बढ़ा हुआ बिजली बिल घर के मासिक खर्च का बड़ा हिस्सा खा जाता है, इससे रसोई बजट में कटौती हो रहा है। ईएमआई, स्कूल फीस, किराया और रसोई खर्च पहले से ही महंगा है और बिजली बिल बढ़ने से मध्यम वर्ग का मासिक बचत लगभग खत्म हो गया है। कई परिवार अवकाश, यात्रा, और अन्य गैर-जरूरी खर्च रोक रहे हैं। उपभोक्ता बिजली बिल का भुगतान किश्तों में कर रहे हैं। राहत की बात है कि सरकार ने समाधान योजना 2025-26 शुरू की है, जिसके तहत बकाया बिलों पर भारी छूट और भुगतान के आसान विकल्प दिए जा रहे हैं। शिकायत है कि स्मार्ट मीटर लगने के बाद कई उपभोक्ताओं के बिल पहले के मुकाबले कई गुना ज़्यादा आ रहे हैं। कई जिलों में बिजली बिलों के खिलाफ जन सुनवाईयों में तीन गुना शिकायतें दर्ज हो रही हैं। उपभोक्ता संगठनों का कहना है कि बिल में “अतिरिक्त चार्ज” वास्तविक खपत से अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों में बिल सुधार और मीटर रीडिंग की समस्याएं लगातार सामने आ रही हैं। मध्यप्रदेश सरकार को महंगे निजी समझौतों को पुनः वार्ता में लाकर दरें कम करने का प्रयास करना चाहिए।कई राज्यों में घरेलू उपभोक्ताओं पर फिक्स्ड चार्ज बेहद कम हैं। मध्यप्रदेश को भी ऐसा करना चाहिए। पुरानी कोयला आधारित यूनिटों को तकनीकी सुधार के साथ चलाना अधिक सस्ता विकल्प हो सकता है। सौर और पवन ऊर्जा स्रोतों से प्रतिस्पर्धी दरों पर बिजली उपलब्ध है, जिसे प्राथमिकता देने की जरूरत है। मध्यप्रदेश में बिजली की बढ़ती कीमतें सिर्फ “महंगी बिजली” का मुद्दा नहीं है।यह घरेलू जीवन, किसान, उद्योग, रोजगार और राज्य की अर्थव्यवस्था तक को प्रभावित कर रहा है। इसलिए उपभोक्ताओं की मांग है कि बिजली की दरें आम आदमी की पहुंच में हों। आश्चर्य यह है कि एशियन डेवलपमेंट बैंक के सिफारिश (टाटा राव कमिटी) पर 2003 में विधुत मंडल के घाटे को खत्म करने के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने बिजली कम्पनियों का गठन किया था। वर्ष 2000 में विधुत मंडल के समय घाटा 2100 करोड़ रुपए था। परन्तु मार्च 2024 तक, मध्य प्रदेश की बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) का संचित घाटा बढ़कर 69,301 करोड़ रुपए हो गया है। सुधार के नाम पर विधुत अधिनियम 2003 लाया गया था। उसका परिणाम है कि उपभोक्ताओं को महंगी बिजली और निजी बिजली कंपनियों को भारी-भरकम मुनाफा मिल रहा है। जबकि 1948 का इलेक्ट्रिसिटी एक्ट का उद्देश्य था कि बिजली को सेवा क्षेत्र में रखकर सभी को उचित दर पर बिजली उपलब्ध कराना।
राज कुमार सिन्हा | बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ
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