By

प्लास्टिक समेत अन्य पेट्रोकेमिकल उत्पादन से अंत तक की यात्रा में बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं|

पेट्रोकेमिकल उद्योगों की वजह से गुजरात के कई इलाकों में रहने वाले स्थानीय लोगों का जीवन दूभर हो गया है। वहीं, इन उद्योगों की वजह से होने वाले प्रदूषण की वजह से जलवायु लक्ष्य तक प्रभावित हो रहे हैं। पहली कड़ी में आपने पढ़ा: पेट्रोकेमिकल सेक्टर में जस्ट ट्रांजिशन: विकास, पर्यावरण और समुदाय के सवाल पर कौन करे बात? । आज पढ़ें अगली कड़ी – 

गुजरात के भरूच जिले के दहेज औद्योगिक क्षेत्र में केमिकल और पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के गोल्डन कॉरीडोर से गुजरते हुए कोयले की काली धूल और राख की परत चारों तरफ देखी जा सकती है। सड़क, मकान, दुकान, कपड़े, बर्तन यहां तक की अपनी सांस में भी लोग कोयले के बारीक कण उतरने की शिकायत करते हैं।

खंभात की खाडी में समुद्र तट किनारे बसा लखीगाम गांव मछुआरों की बस्ती हुआ करता था। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक तकरीबन 5 हजार आबादी वाले गांव की जमीनें दहेज औद्योगिक क्षेत्र को विकसित करने के लिए ले ली गईं। गांव के समुद्री तट पर अडाणी पेट्रोनेट (दहेज) पोर्ट प्रा. लि. का विशाल टर्मिनल वर्ष 2003 में बना। कोयले, जिप्सम, स्टील, पॉली-प्रॉपिलीन, प्रॉपिलीन जैसे ठोस कच्चे माल की ढुलाई और ट्रांसपोर्ट का काम यहां बहुत तेजी से होता है। 4,200 मीट्रिक टन/घंटा की निकासी दर पर थोक में कोयले को संभालने के लिए कन्वेयर हैंडलिंग प्रणाली लगाई गई है।

पेट्रोकेमिकल प्रदूषण से जूझता समुदाय

लखीगाम गांव के पूर्व उपप्रधान और सामाजिक कार्यकर्ता अजय गोयल कहते हैं “जब यहां कोयले और जिप्सम की ढुलाई होती है तो पूरे गांव में धूल उड़ती है। इसका सीधा असर हमारी सेहत पर पडता है। हम कोयले वाला पानी पीते हैं, कोयले वाला खाना खाते हैं, हमारी थूक और छींक से भी कोयला निकलता है। हमारा स्वर्ग जैसा गांव नर्क बन गया है”।

लखीगाम के बचे-खुचे बुजुर्ग मछुआरों ने मच्छी पकडने के लिए समंदर के दूसरे हिस्से में जाना शुरू किया। यहां की महिलाओं को आमतौर पर इन कंपनियों में साफ-सफाई का काम मिलने लगा। बहुत से पुरुष दैनिक मजदूरी करने लगे। युवाओं के सामने आईटीआई प्रशिक्षण लेकर नौकरी करने का रास्ता खुल गया। इंडस्ट्री के लिए जमीन देने वाले परिवार के एक सदस्य को नौकरी मिली।

 गांव के लोग कहते हैं जिन्हें स्थायी नौकरी मिली वे भरूच जिले में पलायन कर गए। जो यहां हैं, उन्हें अस्थायी काम के साथ, रहने के लिए बेहद प्रदूषित वातावरण मिला।

कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी फंड से बने एक कमरे के कुछ पक्के घरों पर “अडाणी” नेमप्लेट लगी है। ऐसे ही एक घर के भीतर शंकर भाई राठौर एक कुर्सी पर बैठे हैं। उनकी पत्नी शंकुतला देवी घर के काम निपटा रही हैं। शंकर भाई बताते हैं कि 5 वर्ष से ज्यादा समय तक अडाणी पेट्रोनेट कंपनी में बतौर मजदूर काम किया। करीब डेढ महीना पहले पैरालिसिस अटैक पडा और वह चलने-फिरने में असमर्थ हो गए। “बीमार पड़ने पर काम छूट गया और कंपनी की तरफ से इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिली। हमारा कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है। मैं एक दिहाड़ी मजदूर था”।

बीमार पति की देखरेख कर रही शकुंतला का भी काम छूट गया, “अगर मैं काम पर जाउंगी तो इन्हें खाना और दवाइयां कौन देगा, शौचालय कौन ले जाएगा। कंपनी में मजदूरी करके घर में जो दो पैसे आते थे, अब वो भीे नहीं आते”।

पेट्रोकेमिकल प्रदूषण से जूझता समुदाय

लखीगाम गांव के पूर्व उपप्रधान और सामाजिक कार्यकर्ता अजय गोयल कहते हैं “जब यहां कोयले और जिप्सम की ढुलाई होती है तो पूरे गांव में धूल उड़ती है। इसका सीधा असर हमारी सेहत पर पडता है। हम कोयले वाला पानी पीते हैं, कोयले वाला खाना खाते हैं, हमारी थूक और छींक से भी कोयला निकलता है। हमारा स्वर्ग जैसा गांव नर्क बन गया है”।

लखीगाम के बचे-खुचे बुजुर्ग मछुआरों ने मच्छी पकडने के लिए समंदर के दूसरे हिस्से में जाना शुरू किया। यहां की महिलाओं को आमतौर पर इन कंपनियों में साफ-सफाई का काम मिलने लगा। बहुत से पुरुष दैनिक मजदूरी करने लगे। युवाओं के सामने आईटीआई प्रशिक्षण लेकर नौकरी करने का रास्ता खुल गया। इंडस्ट्री के लिए जमीन देने वाले परिवार के एक सदस्य को नौकरी मिली।

गांव के लोग कहते हैं जिन्हें स्थायी नौकरी मिली वे भरूच जिले में पलायन कर गए। जो यहां हैं, उन्हें अस्थायी काम के साथ, रहने के लिए बेहद प्रदूषित वातावरण मिला।

कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी फंड से बने एक कमरे के कुछ पक्के घरों पर “अडाणी” नेमप्लेट लगी है। ऐसे ही एक घर के भीतर शंकर भाई राठौर एक कुर्सी पर बैठे हैं। उनकी पत्नी शंकुतला देवी घर के काम निपटा रही हैं। शंकर भाई बताते हैं कि 5 वर्ष से ज्यादा समय तक अडाणी पेट्रोनेट कंपनी में बतौर मजदूर काम किया। करीब डेढ महीना पहले पैरालिसिस अटैक पडा और वह चलने-फिरने में असमर्थ हो गए। “बीमार पड़ने पर काम छूट गया और कंपनी की तरफ से इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिली। हमारा कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है। मैं एक दिहाड़ी मजदूर था”।

बीमार पति की देखरेख कर रही शकुंतला का भी काम छूट गया, “अगर मैं काम पर जाउंगी तो इन्हें खाना और दवाइयां कौन देगा, शौचालय कौन ले जाएगा। कंपनी में मजदूरी करके घर में जो दो पैसे आते थे, अब वो भीे नहीं आते”।

लखीगाम के बीच से गुजरती अडाणी कंपनी की 9.8 किलोमीटर लंबी कनवेयर बेल्ट यहां औद्योगिक विकास का प्रतीक है लेकिन इसका शोर ग्रामीणों के लिए असहनीय है। यहां के निवासी प्रदीप गोयल शिकायत करते हैं “करीब दो महीने पहले मैंने महसूस किया कि बाएं कान से कुछ सुनाई नहीं दे रहा है और कान में रह-रहकर सीटियां बज रही हैं। अब मैं डॉक्टर से इलाज करवा रहा हूं। दिन या रात कभी भी चलने वाले इस कनवेयर बेल्ट के शोर से मेरी तरह अन्य लोग भी प्रभावित होंगे। जिन्हें अभी पता नहीं होगा”।

गांव के प्राथमिक विद्यालय के ठीक पीछे से कनवेयर बेल्ट गुजरती है। प्रदीप दिखाते हैं “इसके शोर से बच्चे पढ नहीं पाते। यहां के लोगों को त्वचा, सांस यहां तक कि कैंसर जैसी बीमारियां हो रही हैं”।

दहेज प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में तैनात डॉ द्रुमिल वैद्य और पीएचसी से जुडी स्वास्थ्य कर्मचारी तरुणा परमार भी स्थानीय लोगों की शिकायत की पुष्टि करते हैं। वह मानते हैं कि प्रदूषण के चलते सामन्य लोगों को बहुत ज्यादा कफ, खांसी, फेफडे की बीमारी और त्वचा संबंधी बीमारियां बढी हैं।

इन मुश्किल परिस्थितियों के बावजूद दहेज औद्योगिक क्षेत्र के निवासी ये नहीं चाहते कि ये औद्योगिक इकाइयां यहां से चली जाएं। दहेज गांव के सरपंच आहिर लक्ष्मण भाई कहते हैं “इंडस्ट्री आने की वजह से हमें रोजीरोटी मिली है। लेकिन ये कंपनियां सरकार के नीति-नियम भूल गई है और अपना फायदे बढाने के लिए बहुत प्रदूषण करती हैं। हम एनजीटी तक गए लेकिन कुछ नहीं हुआ। हमने भी स्थिति स्वीकार ली है”।

स्थानीय समुदाय की इन शिकायतों की पुष्टि अगस्त 2022 में संसद में रखी गई कैग रिपोर्ट ने भी की और  जांच में पाया कि स्थानीय समुदाय और पारिस्थतकीय तंत्र के बचाव के लिए जरूरी समाधान नहीं किए गए। जैवविविधता के लिहाज से बेहद समृद्ध समुद्री दलदलीय क्षेत्र में ये पोर्ट बना है, जो प्रवासी पक्षियों समेत मछलियों की कई प्रजातियों के लिए प्रजनन स्थल के तौर पर कार्य करता था। पोर्ट से जुड़ी पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) रिपोर्ट में संचालन के दौरान तेल गिरने जैसी वजहों से समुद्री जल की गुणवत्ता प्रभावित होने की आशंका जताई थी। इसके बावजूद बचाव के उपाय नहीं किए गए।

पेट्रोकेमिकल का बढ़ता कारोबार 

दहेज के समुद्री क्षेत्र में अडाणी समेत ओएनजीसी, गेल, जीसीपीटीसीएल लिक्विड केमिकल टर्मिनल, एलएनजी पेट्रोनेट गैस टर्मिनल, रिलायंस लिक्विड फ्यूल जेटी, बिरला कॉपर बल्क कार्गो जेटी जैसे प्लेटफॉर्म मौजूद हैं।

औद्योगिक इकाइयों से एथेलिन, प्रॉपीलिन, पॉलीथीलिन, पॉलीप्रॉपलीन, बेंजीन, बुटाडीन समेत कई तरह के केमिकल और उर्वरक का उत्पादन होता हैं।

प्लास्टिक और उर्वरक दो सबसे बड़े उत्पाद समूह हैं। वाहनों, डिजिटल उपकरणों से लेकर भोजन तक में इनका इस्तेमाल होता है। दुनियाभर में तेजी से बढ़ते  प्लास्टिक ने स्टील, एल्यूमिनियम, सीमेंट जैसे उत्पादों को भी पीछे छोड़ दिया है।

वर्ष 2020-21 में भारत की कुल प्रमुख पेट्रोकेमिकल्स स्थापित उत्पादन क्षमता 50.44 मिलियन मीट्रिक टन प्रति वर्ष (एमएमटीपीए) और उत्पादन 42.15 एमएमटीपीए रहा। जबकि पॉलिमर उत्पादन 12.14 एमएमटीपीए रहा। प्लास्टिक, कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस से प्राप्त हाइड्रोकार्बन-आधारित पॉलिमर हैं।

भारत में केमिकल और पेट्रोकेमिकल उत्पादों की मांग वर्ष 2040 तक लगभग तीन गुना और 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। मौजूदा समय में देश में इसका बाजार 190 बिलियन डॉलर का है। भारत दुनिया का छठा और एशिया का चौथा सबसे बडा केमिकल उत्पादक है। पेट्रोकेमिकल में विश्वस्तर पर 10% से अधिक वृद्धि में भारत का योगदान होने की उम्मीद है।

पर्यावरण कार्यकर्ता और टॉक्सिक वॉच एलायंस के गोपाल कृष्ण कहते हैं “हम जीडीपी में पेट्रोकेमिकल उद्योगों के फायदे का आकलन करते हैं। लेकिन इससे पर्यावरण और जैव-विविधता को नुकसान, पारंपरिक आजीविका और मानव सेहत पर असर की लागत का आकलन नहीं करते। इन्हें साथ देखें तो समझ आएगा कि ये कितना घाटे का व्यापार है”।

वह आगे कहते हैं, “केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जिन पेट्रोकेमिकल उद्यमों को भारी प्रदूषण वाली इंडस्ट्री  चिन्हित कर रेड केटेगिरी में रखा है, क्या इन्हें रेड केटेग्री में ही बने रहना चाहिए। जस्ट ट्रांजिशन की मांग  इन उद्यमों में बदलाव लाने और पर्यावरण अनुकूल प्रक्रिया अपनाने की है”।

प्लास्टिक प्रदूषण और नेट जीरो

प्लास्टिक समेत अन्य पेट्रोकेमिकल उत्पादन से अंत तक की यात्रा में बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जो वैश्विक तापमान में बढोतरी को 1.5°C से नीचे रखने का लक्ष्य हासिल करने में बड़ी बाधा हो सकते हैं। विश्वस्तर पर यदि मौजूदा दर से प्लास्टिक उत्पादन होगा तो वर्ष 2030 तक इससे सालाना 1.34 गीगाटन जीएचजी उत्सर्जन होगा। जो 500 मेगावाट के 295 से अधिक कोयला आधारित पावर प्लांट के बराबर होगा।

वैश्विक ऊर्जा चर्चाओं में पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री “ब्लाइंड स्पॉट” के तौर पर चिन्हित की गई है। जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने के लिए इस सेक्टर पर जरूरी ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

प्लास्टिक प्रदूषण पर कार्य कर रही संस्था टॉक्सिक लिंक की चीफ प्रोग्राम कॉर्डिनेटर प्रीति महेश कहती हैं, “भारत में सिर्फ प्लास्टिक कचरे के निस्तारण और उससे जुडे समुदाय के हितों की बात की जा रही हैं। इसके निर्माण के दौरान होने वाला प्रदूषण और उससे प्रभावित समुदाय पर कोई बात नहीं हो रही है। हम इसके उत्पादन को सीमित करने के लिए भी कोई बात नहीं कर रहे”।

प्लास्टिक प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए 2 मार्च 2022 को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (यूएनईए-5.2) में एक अंतरराष्ट्रीय कानूनी रूप से बाध्यकारी, वैश्विक प्लास्टिक संधि, बनाने के प्रस्ताव का 175 देशों ने सर्वसम्मति से समर्थन किया था।

इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम सितंबर 2023 में लाया गया जीरो ड्राफ्ट माना जा रहा है। इस ड्राफ्ट के मसौदे को अंतिम रूप देने के लिए वर्ष 2024 में दो महत्वपूर्ण बैठकें होनी है।

इस संधि का उद्देश वर्ष 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करना है। ये सिर्फ प्लास्टिक कचरा नहीं, बल्कि इसके पूरे जीवन चक्र को शामिल करती है। प्रीति महेश कहती हैं “खाडी देश हों या भारत, वे अभी प्लास्टिक उत्पादन कम करने पर चर्चा नहीं करना चाहते। वे सिर्फ प्लास्टिक कचरे तक कार्रवाई के लिए ही तैयार है”।

पेट्रोकेमिकल क्षेत्र में जस्ट ट्रांजिशन कब?

भारतीय केमिकल और पेट्रोकेमिकल सेक्टर में करीब 20 लाख लोग प्रत्यक्ष तौर पर रोजगार से जुडे हैं। इसमें सालाना 6% से अधिक बढोतरी हो रही है। इसके अलावा औद्योगिक क्षेत्र के ईर्दगिर्द बसी लाखों की आबादी अप्रत्यक्ष तौर पर आजीविका के लिए इस पर निर्भर करती है।

संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट टेक्नॉलजी सेंटर एंड नेटवर्क के सलाहकार बोर्ड के सदस्य सौम्य दत्ता कहते हैं “भारत के पास पेट्रोकेमिकल्स से दूर जाने की कोई ठोस योजना नहीं है, हालांकि हमारी सरकार के पास सिंगल यूज प्लास्टिक को कुछ हद तक सीमित करने के लिए एक अस्थायी और सीमित रणनीति है”।

“पेट्रोकेमिकल उत्पादन में बड़े कॉर्पोरेट घराने से लेकर छोटी मोल्डिंग इकाइयों, विक्रेताओं, रिसाइकल करने वालों तक, यह इंडस्ट्री बडे पैमाने पर लोगों को रोजगार और मुनाफा देती है। हमारे जीवन का लगभग हर क्षेत्र  प्लास्टिक से जुडा है। पेट्रोकेमिकल उद्योगों से बड़े पर्यावरणीय नुकसान के बावजूद, अगले कुछ दशकों में इन्हें रोकना मुश्किल है”, सौम्य आगे कहते हैं।

 डब्ल्यूआरआई की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पेट्रोकेमिकल सेक्टर से दूर जाना होगा। विकासशील देशों को इस पर निर्भर श्रमिकों और समुदायों की सुरक्षा के लिए ‘जस्ट ट्रांजिशन’ यानी एक ‘न्यायसंगत परिवर्तन’ की आवश्यकता है। इससे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक लाभ मिल सकते हैं। लेकिन ये विकासशील देशों के लिए महत्वपूर्ण चुुनौती होगी।

प्लास्टिक प्रदूषण खत्म करने के बाध्यकारी दस्तावेज में भी इसपर निर्भर समुदाय को कौशल प्रशिक्षण और आजीविका के अवसर उपलब्ध कराने के लिए जरूरी नीति और व्यवस्था तैयार करने को कहा गया है।

गुजरात के पर्यावरण कार्यकर्ता उस्मानगनी शेरसिया कहते हैं “अगर पेट्रोकेमिकल कंपनियां हटती हैं तो समंदर में मछलियां और खेतों में फसल दोबारा लौट आएगी। इससे भी बड़ी आबादी का रोजगार जुडा है”।

(वर्षा सिंह सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकाउंटबिलिटी में रिसर्च फेलो हैं)

यह लेख मूल रूप से डाउन टू अर्थ में प्रकाशित हुआ था और इसे यहां पढ़ा जा सकता है।

A pop-up is always irritating. We know that.

However, continuing the work at CFA without your help, when the odds are against us, is tough.

If you can buy us a coffee (we appreciate a samosa with it!), that will help us continue the work.

Donate today. And encourage a friend to do the same. Thank you.