भौतिकवादी विकास करते – करते आज हम उस मुहाने पर आ गए हैं जहां हमें यह तय करना ही होगा, कि हमें क्या चाहिए? प्रकृति के साथ सहअस्तित्व या पर्यावरण नष्ट करके मानव सभ्यता का अंत!
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से मेसापोटामिया व सिंधु घाटी जैसी सभ्यताएं खत्म हो गई, कैंब्रिज विश्वविद्यालय का शोध बताता है कि आज से ठीक 1500 साल पहले लेटिन अमेरिका के देश पेरू में नाजका सभ्यता के नष्ट होने का कारण भी पर्यावरण विनाश है। आज पर्यावरणीय क्षति के कारण ही ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिससे समुद्रीय मुहाने के देश डूबने के कगार पर है, तापमान बढ़ रहा है, जलवायु बदल रही है और यदि ऐसा ही होता रहा, तो एक अनुमान के मुताबिक 2200 ईसवी तक पृथ्वी का तापमान 3 से 10 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।
कोरोना महामारी के दौर में करोड़ों रुपए होने के बावजूद ऑक्सीजन नहीं मिली, तब प्रकृति के प्रति हमारी क्षणिक संवेदनशीलता जरूर दिखी, लेकिन वह नाकाफी है। जानकारों का कहना है, अगर दुनिया में पेड़ ना हो तो ऑक्सीजन बनाने के कितने भी संयंत्र लगा लिए जाएं, आपूर्ति नहीं होगी। वैश्विक वन संशोधन रिपोर्ट 2015 के अनुसार मानव सभ्यता के विकास के बाद से पृथ्वी पर वृक्षों की संख्या में 46% कमी आई है, इस समय विश्व में 3 लाख करोड वृक्ष है, प्रति व्यक्ति 422 पेड़। जो पूर्व के अनुमान से साढ़े 7 गुना ज्यादा है। पूर्व के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में महज 400 अरब पेड़ लहरा रहे हैं, प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या 61 है।
भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2019 के अनुसार मध्यप्रदेश भारत के सर्वाधिक वनाच्छादित राज्यो में प्रथम स्थान पर है, मध्य प्रदेश के 77482 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन है, जो कुल क्षेत्रफल का 25.14 प्रतिशत है, फिर भी यह न्यूनतम 33% वनो से कम है, जो कि मानव के जीवन के लिए आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य दिनभर में जो भी खाता पीता है, उसमें 75% भाग हवा का होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य 1 दिन में 22 हजार बार सांस लेता है, इस प्रकार दिन भर में वह 15 से 18 किलोग्राम हवा ग्रहण करता है। फिर भी कोरोना की दूसरी लहर में जब हमने ऑक्सीजन (प्राणवायु) का भयावह संकट झेला, ऐसे समय में बक्सवाहा के विशाल जंगल को काटना कहां तक उचित है? विशेषज्ञ कहते यदि अधिकतम ऑक्सीजन देने वाले पेड़ धरती पर लगाए गए होते, तो कृत्रिम आक्सीजन की जरूरत नहीं पड़ती।
वृक्षों में पीपल सर्वाधिक 600 किलोग्राम ऑक्सीजन का उत्सर्जन प्रतिदिन करता है। पीपल वृक्ष द्वारा सर्वाधिक दबाव वाली ऑक्सीजन उत्सर्जन के कारण भारतीय परंपरा में मुर्दा व्यक्ति को अंतिम संस्कार के समय एक बार पीपल के नीचे जरूर रखा जाता, ऐसा मानते हैं कि एक बार एक मुर्दा अधिकतम ऑक्सीजन के दबाव के कारण जिंदा हो गया था। फिर भी पीपल, बरगद जैसे वृक्ष आमतौर पर हम वृक्षारोपण में शामिल नहीं करते, जो मुख्यत जंगलों में पाए जाते हैं, इसके पीछे लोग दो कारण बताते हैं। एक तो भारतीय समाज जिसमें खासतौर से आदिवासी वर्ग साज व पीपल वृक्ष में साक्षात् ईश्वर का वास मानकर, उसकी प्रतिदिन पूजा करते हैं। जिस कारण इसकी लकड़ी का उपयोग नहीं करते। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इमारती लकड़ी में सार होना जरूरी है जो पीपल में नहीं होता अतः इसका इमारती लकड़ी और फर्नीचर वगैरह में उपयोग नहीं हो पाता। बरगद जैसे विशाल वृक्ष जो प्रतिवर्ष वृद्धि करते उनका दायरा असीमित होता, साथ ही बरगद की लकड़ी भी बहुत उपयोगी नहीं होती।
इतने विपरीत समय में बक्सवाहा के जंगलों को काटना कहां तक उचित है? जहां परियोजना के लिए आवंटित 62.64 हेक्टेयर खनन क्षेत्र में पेड़ों की 46 प्रजातियां हैं, जिसमें 40 हजार सागौन, 40 हजार तेंदू, 21 हजार बेल सहित साल, चिरौंजी, महुआ, अर्जुन, पीपल आदि के सर्वाधिक वृक्ष है।
स्टेट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार साल के एक पेड़ में 5.7 टन कार्बन संचय की क्षमता, साज के पेड़ में 3.11 टन, चिरौंजी में 1.38 टन, तेंदू में 1.30 टन, महुआ में 0.9 टन, बेल में 0.7 टन, आंवला में 0.53 टन, सागौन में 0.53 टन कार्बन संचय कर सकते हैं, इस प्रकार 1 एकड़ जमीन के पेड़ 6 टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की क्षमता रखते, इस लिहाज से खदान की जद में आने वाली 2.15 लाख पेड़ 1 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड संचय कर सकते हैं, साथ ही वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाते हैं। तब प्रकृति के साथ सहअस्तित्व बनाकर जीने के लिए, हमें भौतिकवादी विकास की इस प्रतिस्पर्धी दौर में, अपने जंगलों की ऑक्सीजन व कार्बन संचय की ट्रेडिंग के लिए सोचना चाहिए! यूएनएफसीसीसी के 1997 में हुए क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन क्रेडिट का सिद्धांत सामने आया। इसमें कहा गया कि जो कंपनियां अच्छी तकनीक का इस्तेमाल कर कार्बन उत्सर्जन कम करेंगी, उन्हें कार्बन क्रेडिट मिलेगा, ऐसा करने वाली कंपनियां/ देश अपना कार्बन क्रेडिट उन देशों को बेच सकेंगे, जहां कार्बन उत्सर्जन ज्यादा है। यह एक तरह का अंतरराष्ट्रीय प्रमाण पत्र होता है, जिसे कार्बन उत्सर्जन पर नजर रखने वाली कंपनियां जारी करती। इस प्रकार वन द्वारा संजोए कार्बन की बिक्री से प्राप्त कीमत। कार्बन क्रेडिट हासिल करने के पांच कदम हरियाली संजोना, हरियाली लगाना, हरित वृक्षों द्वारा संजोए कार्बन की मात्रा का आकलन करना, उनकी कीमत लगाना तथा मान्यता देने वाली एजेंसी से मान्यता प्राप्त करना और बेचना।
2015 में पेरिस में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में विकसित, अल्प विकसित व विकासशील देशों को इसके प्रावधानों के तहत शामिल किया गया, तभी से यह पर्यावरण संरक्षण का एक व्यापक मापदंड बना। स्वच्छ भारत मिशन के तहत इंदौर स्मार्ट सिटी ने बायोमिथेनाईजेशन प्लांट, कंपोस्ट प्लांट, पंद्रह सौ किलो वाट के सोलर प्लांट, वन संरक्षण, ग्रीन इंदौर मिशन जैसे प्रोजेक्ट से कार्बन उत्सर्जन में खासी कमी की, जिससे इंदौर को कार्बन क्रेडिट अंक हासिल हुए। बीते वर्ष इंदौर नगर निगम ने जर्मनी को 1.70 लाख कार्बन क्रेडिट 69 लाख रुपए प्रति वर्ष की दर से 30 वर्ष के लिए बेच दिए। इंदौर की स्मार्ट सिटी कंपनी ने अब शहर के दो शैक्षणिक संस्थानों श्री गोविंदराम सेक्सरिया इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस और देवी अहिल्या विश्वविद्यालय को कार्बन क्रेडिट दिलवाने की कवायद शुरू की है, स्मार्ट सिटी कंपनी इन दोनों संस्थाओं में उर्जा संरक्षण के प्रयासों का ऑडिट करवाएगी तथा नवीकरणीय उर्जा हेतु नवाचार भी करेगी। इसी प्रकार दिल्ली मेट्रो ने 2012 से 2018 तक 6 साल में 35.5 लाख कार्बन क्रेडिट की बिक्री से 19.5 करोड़ रुपए कमाए हैं।
अब सवाल यह है कि कंपनियां जिनके पास तकनीक है, वे जंगलों की संचित कार्बन को बेच रही, जबकि यह क्रेडिट जंगलों को मिलना थी, जब जंगल को यह क्रेडिट मिलेगी, तो उसमे रहने वाले लोगों का प्रकृति अनुकूल नवाचार स्वत होगा, इस क्षेत्र में अब राष्ट्रीय उद्यान आगे आए है। दुधवा टाइगर रिजर्व लखीमपुर खीरी ने कार्बन क्रेडिट प्रमाण पत्र हासिल कर, उसे घरेलू और वैश्विक बाजार में बेचने की योजना बनाई है। वह अब राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण व ऊर्जा संसाधन संस्थान की मदद से 10 -15 करोड़ रुपए प्राप्त करने की कार्य योजना पर कार्य कर रहा है।
इस प्रकार बक्सवाहा का विशाल जंगल भी औद्योगिक कंपनियों को अपनी कार्बन ट्रेडिंग कर सकता है, ग्रीन इंडिया मिशन मध्य प्रदेश के प्रोजेक्ट डायरेक्टर बताते हैं कि बुंदेलखंड क्षेत्र कार्बन संचय क्षमता के हिसाब से मध्य में आता है, यहां कार्बन संचय की क्षमता प्रति हेक्टेयर 75 टन से अधिक है। कंपनियां कार्बन क्रेडिट प्राप्त करती, जबकि उनके लिए कार्बन संचय जंगल ही करता, तो उस कार्बन संचय की क्रेडिट जंगल को मिले, ताकि वह अपनी कार्बन संयोजन की ट्रेडिंग कर सकें।
कार्बन संचय के अलावा पेड़ हमें बहुत कुछ देते, वह अमूल्य चीजें है, उसका आंकलन मुश्किल है, इसका वैज्ञानिक आकलन भारतीय अनुसंधान परिषद ने किया, उनके अनुसार उष्णकटिबंधीय एक हेक्टेयर क्षेत्र में वन से 1.41 लाख रुपए का लाभ होता। इसके साथ ही 50 साल में एक वृक्ष 15.70 लाख रुपए की लागत का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ देता है। पेड़ लगभग 3 लाख रुपए मूल्य की भूमि में नमी बनाए रखता है, 2.5 लाख रुपए मूल्य की ऑक्सीजन, 2 लाख रुपए मूल्य के बराबर प्रोटीनों का संरक्षण, 5 लाख रुपए मूल्य का वायु व जल प्रदूषण नियंत्रण तथा 2.5 लाख रूपए मूल्य के बराबर पक्षियों व कीट पतंगों को आश्रय स्थल प्रदान करते है।
इस घने जंगल की विशालता के कारण राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण, पन्ना टाइगर रिजर्व से नौरादेही अभ्यारण तक जंगल गलियारा बनाकर संरक्षण की बात करता है, क्योंकि कई बार यहां से बाघ निकले है। इसी वन क्षेत्र में जबलपुर सर्किल के आर्कियोलोजिकल विभाग ने जुलाई 2021 में सर्वे कर पाया कि कुसूमार गांव के पास तीन जगह बड़ी रॉक पेंटिंग और मूर्तियां मौजूद है। यह रॉक पेंटिंग पाषाण युग व मानव सभ्यता के पहले से भी है। इस प्रकार बक्सवाहा की पहचान मानव सभ्यता को प्रदर्शित करने वाली रॉक पेंटिंग व मूर्तियों से भी हो सकती है, साथ ही यहां पर कलचुरी काल की भी कुछ मूर्तियां मिली है। इस प्रकार के पुरातात्विक अवशेष इस क्षेत्र को एक विशेष पहचान दिलाने की और संकेत करते है, यहां ज्ञात जगहों में भीमकुंड नाम का एक प्राकृतिक कुण्ड है, जिसकी गहराई का पता आज तक नहीं लगाया जा सका। इस प्रकार यदि जंगली क्षेत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग नए कलेवर के साथ संरक्षित करें, तो यह वन क्षेत्र पर्यटन का मुख्य केंद्र बन सकता है।
साथ ही इस जंगली क्षेत्र के लोगों को हम यहां की वनोपज से भी एक विशेष पहचान देकर स्वाबलंबी बना सकते। हस्तशिल्प, लघु वन उपज व औषधियों का यह एक प्रमुख केंद्र हो सकता है, जिससे ग्रामीण लोगों को रोजगार मिलने के साथ आय के स्रोत बढ़ जाएंगे। आदिवासी लोगों की आय का मुख्य स्रोत महुआ, गुली, आंवला, केथा, तेंदूपत्ता, अचरवा के साथ औषधि पौधे बहेड़ा, नीम, अर्जुन, बाल बिरंगे, बेल, कई प्रकार की औषधि घास है। यदि हम इस वन संपदा से बनने वाले उत्पाद, इसी क्षेत्र में प्रोसेसिंग यूनिट और छोटे-छोटे लघु, कुटीर उद्योग लगाकर करें, तो यहां का उत्पादन लोगों की आय में वृद्धि कर, जन जीवन में सुधार कर सकता है, जिससे आदिवासी और जंगली क्षेत्र के ग्रामीण लोग मुख्यधारा से जुड़ने के साथ-साथ बेहतर अधोसंरचना विकास को प्राप्त कर सकेंगे।
लेकिन यदि हम इन सभी संभावनाओं व कोरोना काल में ऑक्सीजन का संकट भूल विलासिता पूर्ण जीवन के लिए हीरा की तरफ दौड़ते, तो हम बुंदेलखंड के अस्तित्व के कुठाराघात की तरफ बढ़ेंगे, इस बात को भी समझने की जरूरत है कि हीरा कार्बन से बनता है। वह आभूषण के अलावा किसी भी अन्य कार्य में उपयोगी हो, ऐसा समझ में नहीं आता और वह जवाहरात अमीर लोग ही पहन पाते हैं। ऐसे जवाहरात हम कृत्रिम तरीके से भी तैयार कर सकते हैं, यदि 760 डिग्री सेल्सियस पर हम कार्बन को माइक्रोवेव में रख दें, तो हमें एक कृत्रिम हीरा प्राप्त हो जाता है।
यदि बक्सवाहा जैसे विशाल जंगल को हम कोरोना वायरस के इस दौर में भी काटते हैं, तो बोतलबंद हवा का जो कारोबार भारत में शुरू होने जा रहा है, इसका विस्तार दिन- दूना, रात – चौगुना फैलने की उम्मीद है, उसे हम रोक नहीं सकते। इससे शंका यह उभरती है कि हवा का कारोबार कहीं प्रदूषण से मुक्ति के स्थाई समाधान के उपायों पर भारी न पड़ जाए?
वाईटेलिटी एयर बैंक एंड लेक कंपनी ने 2014 में प्रयोग के तौर पर हवा से भरी थैलियां बेचने की शुरुआत की थी। कंपनी के संस्थापक मोसेज लेम कहते हैं, कि बाजार में हवा भरी थैलियों की पहली खेप तुरंत बिकने से हमारे हौसले को बल मिला, कंपनी भारत में खतरनाक स्तर पर पहुंची जहरीली हवा और अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी के चलते भारत में भी कारोबार करने जा रही है। भारत में ऐसी कठिन स्थिति कोरोना के प्रकोप ने बना दी, कृत्रिम हवा की यह उपलब्धता, आशंका उत्पन्न करती है कि कहीं भारत में प्राण वायु की कमी, हवा के स्थाई बाजार के रूप में ना बदल जाए, क्योंकि बोतलबंद पानी आने के बाद जल स्रोतों का भी यही हश्र हुआ था।
यदि हम इसी तरीके से पेड़ नष्ट करते रहे तो पेड़ के साथ मानव भी नष्ट होगा। इसलिए हमें मानव सभ्यता को बचाए रखने कृत्रिम ऑक्सीजन निर्माण के बजाय, कृत्रिम हीरा बनाना चाहिए। हमारी बाह्य शोभा/ आकर्षक तो तभी बनेगी, जब हमारे अंदर प्राणवायु होगी। जो केवल हमें पेड़ ही दे सकते।
Picture courtesy: Ankit Mishra
This is a four-part series done for the Smitu Kothari Fellowship and published in the Newspaper Subah Savere. You can find all the other parts of the story here.
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