लेख के शीर्षक में प्रयोग किए गए दो शब्द कोविड और बुन्देलखण्ड जैसे ही हमारे कानों को सुनाई देते हैं। वैसे ही हमारे कान चौकन्ने हो जाते हैं। दोनों शब्दों के सुनते ही मन-चिन्तन में डरावने चित्र उभरने लगते हैं, रूह कांपने लगती है। कई लोगों को कोविड से भले ही ऐसे विचित्र और डरावने चित्र उभरते होंगे। हो सकता है कि बुन्देलखण्ड शब्द से ऐसा न लगे क्योंकि आप बुन्देखण्ड से वैसे परिचित न हो। ऐसा भी हो सकता है कि बुन्देलखण्ड के उस पक्ष से अनभिज्ञ हो, जिसका बुन्देलखण्डी सामना करते हैं। क्योंकि बुन्देलखण्ड को जानने वाले के मन-विचार पर कोविड जैसे भाव ही बुन्देलखण्ड शब्द के सुनने से आते होंगे। चाहे वह हिस्सा म.प्र. के बुन्देलखण्ड का हो, या फिर उ.प्र. का ही क्यो न हो। स्थिति कमोवेश एक जैसी ही है। बदलता है, तो सिर्फ राज्य, जिला और शासन-प्रशासन में बैठे लोगों के नाम। हम बुन्देलखण्ड के लोगों को या बुन्देलखण्ड की हकीकत को जानने वाले लोगों को कोविड और बुन्देलखण्ड एक-दूसरे के पर्याय लगते हैं। और वास्तव में हैं भी। उक्त लिखित है कि दोनों शब्दों के कानों में पड़ते ही भय(डर) लगता है। ऐसा क्यों..? यह सवाल अपने-आप से पूछ कर देखिए …. शायद उत्तर मिल गया होगा। यदि नहीं मिला, तो मैं दे देता हूं। कोविड जैसे ही हमारे कानों में सुनाई देता है, तो साल भर में हुए मानव जीवन के संकटमयी दृश्य बनने लगते है, जो प्रकृति और कुशासन की देन हैं। बुन्देलखण्ड के साथ भी सालों से यही हो रहा है। हम बुन्देलखण्डी भी प्रकृति और कुशासन की मार झेल रहे हैं। अनगिनत सालों से झेलते आ रहे है, और न जाने कितने सालों तक झेलेंगे। अंतर इतना-सा है कि मानव अस्तित्व पर जब संकट आया, तो दुनिया कोविड से निजाद पाने के लिए वैक्सीन को बनाने में लग गई। आखिरकार कड़ी मेहनत के बाद हमने वैक्सीन बना ली। पर बुन्देलखण्ड पलायन की वैक्सीन बनाने में नाकाम रहा है और न बनाने की स्थिति में है, निकट भविष्य में। आपको लगता होगा कि मैं ज्यादा नकारात्मक हूं। या बुन्देलखण्ड के पलायन को बेफजूली में बढ़ा-चढ़ा कर बता रहा हूं। पर मैं सच्चाई बयां करने की कोशिश कर रहा हूं, जो मैंने बचपन से अपने बुन्देलखण्ड के गांवों में देखी थी। पांच साल महानगरों में रहा। इस दौरान भारत के कुछ राज्यों और कुछ बड़े शहरों को छोड़कर भारत को अच्छे से देखा, जाना, पढ़ा, लिखा, सुना और समझा है। इसके बाद हाल ही में ‘स्मितु कोठारी फेलोशिप’ सी.एफ.ए.(सेन्टर फॉर फाइनेंस अकाउंटबिल्ट) नामक संस्था से प्राप्त हुई जिसके शोध का विषय है- ‘कोविड के दौरान और कोविड के बाद बुन्देलखण्ड का पलायन’। मैंने लंबे अंतराल के बाद बुन्देलखण्ड को पुनः देखा, जाना और परखने की कोशिश की। तब अवधारणा बनी कि बुन्देलखण्ड आज भी वैसा ही है, जैसा दशकों पहले था। दिखावे के लिए दो-चार चीजे जरूर मिली हैं। कुछ लोगों को- एंड्रॉइड मोबाइल(आई फोन से आज भी अपरिचित हैं), मोटरसाईकिल, प्रधानमंत्री आवास और नए चलन का पहनावा (जो बदलती दुनिया से, कब का जा चुका है)। इसके अलावा सब वैसा ही है, जो पहले था।
उक्त लिखित है कि बुन्देलखण्ड और कोविड एक-दूसरे के पर्याय है, तो कैसे …? उत्तर है कि कोविड का नाम लेते ही लॉकडाउन का चित्र सबसे पहले हमारे सामने आता है, जिसमें सारी चीजें ठप पड़ जाती हैं। लोग घरों से नहीं निकल पाते हैं। गलियां सूनी हो जाती हैं। बाजार बंद होते हैं। खिन्न कर देने वाले वीडियो आते हैं। लोग सामान बांधकर भाग रहे होते हैं। दुर्घटनाओं की खबरें आती हैं। लोग अस्पतालों में अपना अन्य इलाज नहीं करा पा रहे होते हैं। लोगों के पास रोजगार नहीं होते हैं। लोगों के पास पैसे नहीं होते हैं। जिन लोग के पास पैसे होते हैं, वह खर्च नहीं कर पाते। लोग अपनों कि चिन्ता (परेशानी) में खोये रहते हैं। लोग एक-दूसरे को हीन भावना से देखते हैं (संक्रमण के कारण)। बड़ी आबादी के पास रहने का ठिकाना नहीं होता है। अगले दिन के भोजन की निश्चितता नहीं । राशन के लिए पैसे नहीं और न ही राशन की दुकानों का पता। यातायात के संसाधन नहीं। स्कूल-कॉलेज बंद। सरकारी अमले का डरावना रूप। पर सब कुछ नकारात्मक नहीं था। लोगों ने एक-दूसरे की मदद की और सहारा बने। नेताओं ने बड़े-बड़े ऐलान किए। लोगों को बसों में भरकर घर-घर पहुंचाया। इस प्रकार से अच्छे और बुरे दोनों तरह के अनुभवों की लंबी सूची है।
कोविड को बुन्देलखण्ड के पलायन से तुलना करके देखते हैं- बुन्देलखण्ड का नाम लेते ही पलायन का चित्र सबसे पहले उभरता है। जिससे बुन्देलखण्ड की सारी चीजें ठप पड़ जाती हैं। लोग गांव-घरों में होते ही नहीं, जिस कारण गलियां सूनी हो जाती है। जब लोग नहीं, तो बाजार बंद। हर एक पलायन के साथ दुखी कर देने वाली कहानी सुनाई देती। पलायन करते समय लोग सिर पर सामान रखकर सड़क तक जाते हैं। दुर्घटनाओं की खबरें आती हैं। पलायन के कारण न लोग होते हैं, और अस्पताल तो है ही नहीं, तब इलाज की बात ही क्या..? लोग बेरोजगार रहते हैं इसीलिए पलायन करते हैं। लोगों के पास पैसे नहीं होते हैं। जिन लोग के पास पैसे आ जाते हैं, उनका परिवार साथ में नहीं होता है, तब वह खर्च किस पर करें.. लोग अपनों के पलायन के कारण चिन्ता (परेशानी) में खोये रहते हैं। परदेशी को लोग हीन भावना से देखते हैं (गरीबी और गैरपरिचित होने के कारण)। पलायन करने वालों के पास रहने का ठिकाना नहीं होता है। अगले दिन के भोजन का निश्चित नहीं होता है। राशन के लिए न पैसे होते और न ही राशन की दुकानों का पता। गांवों से पलायान हो जाने के बाद यातायात रुक-सा ही जाता है। स्कूल-कॉलेज के लिए बच्चे ही नहीं होते। परदेशियों को सरकारी अमला डरावाता ही है। ऐसा नहीं है, कुछ सकारात्मक भी होता है। पलायन करने वाले एक-दूसरे की मदद भी करते हैं और सहारा भी बनते हैं। नेता बड़े-बड़े ऐलान करते हैं। गांव से लोगों को बसों में भरकर ठेकेदार बड़े शहरों में ले जाते हैं। इस प्रकार से कोविट महामारी और बुन्देलखण्ड के पलायन का समान रूप होता है। कोविड के कारण चलती हुई दुनिया रुकी है, वैसे ही दौड़ता हुआ बुन्देलखण्ड भी पलायन के कारण रुका है।
This article was first published in ‘Subah Savere’
Picture coutesy: Pankaj Kushwaha/Wikipedia